06 May 2009

धर्मनिर्पेक्षता

बड़ी ही बेवकूफ़ी वाला या बेवकूफ़ों के लिए बनाया गया शब्द है “धर्मनिर्पेक्ष”। दूसरे धर्म पुरानी संस्कृति और सामाजिक आवश्यकताओं के कारण बने हैं, लेकिन हमारी संस्कृति और सामाजिक जरूरतें हमारे धर्म से निर्धारित होती है और इसी से हमें विश्व में सदैव सम्मान मिलता रहा है।

अपने लेखों में धर्म निरपेक्षता की दुहाई देने से पहले कुछ ऐसे विकसित देशों के बारे में जानना चाहिए, जो देश के हर व्यक्ति की तंख्वाह में से चर्च के लिए फंड काटते हैं, फिर भी खुद को धर्म निरपेक्ष कहते हैं। धर्म निरपेक्ष देशों में ऐसे-ऐसे देश हैं कि राष्ट्रपति हर प्रमुख त्योहार पर चर्च की प्रार्थना में शामिल होता है (मंदिर, मस्जिद नहीं जाता) और देश के सभी प्रमुख टी॰ वी॰ चैनल इसका सीधा प्रसारण दिखाते हैं। पॉप के आगमन पर सेना तथा तोपों की सलामी दी जाती है। (पॉप यदि वॆटिकन के राष्ट्रपति या राजा हैं तो भी यह गलत है, क्योंकि वह एक मन्दिर का राजा हैं।)

हमारे देश की हालत है कि धर्म के नाम और दम पर सत्ता में आते हैं और सत्ता में आते ही धर्म निर्पेक्षता का नारा गर्म करने लगते हैं। जो राजनेता धर्म के नाम से दूर भागते हैं वो खुद को गाँधी वादी कहते हैं। क्या गाँधी जी ने कहा था कि राजनीति को धर्म से दूर रखो? अगर धर्म से परहेज है तो जाति के नाम पर आरक्षण कैसे हो सकता है? क्या आरक्षण जातिवाद नहीं है? क्या जाति धर्म से अलग है, धार्मिक नहीं, जाति का आधार भी धर्म ही है। अगर देश को धर्म निर्पेक्ष बनाने की इतनी ही चिन्ता है तो, पहले देश में सभी धर्मों और जातियों के लिए एक जैसा संविधान बनना चाहिए। हमारे देश के कानून में हर प्रान्त (राज्य), जाति और धर्म के लिए अलग-अलग विधान है, भेद-भाव है। किसी धर्म और जाति विशेष के लिए विशेष सुविधा, विशेष कानून या आरक्षण; ये भेद-भाव बढ़ाने वाली चीजे हैं।

दुनिया भर में अन्य धर्मों के बड़े-बड़े अपराधी जेल जाने पर मुस्लमान क्यों बन जाते हैं? क्योंकि भारत ही नहीं अमरीका के जेलों में भी मुस्लामानों के लिए अधिक सुविधा है। ऐसे देश धर्मनिर्पेक्ष कैसे कहे जा सकते हैं? फिर तो अधर्मी क्म्यूनिस्ट राष्ट्र ही सच्चे धर्मनिर्पेक्ष हैं? क्योंकि क्म्यूनिस्ट सरकार धर्म के नाम पर कुछ नहीं करती। जनता परेशान तो बहुत हैं, लेकिन अल्प-संख्यक नाम की कोई चीज वहां नहीं है। क्योंकि जब राष्ट्र में किसी धर्म को मान्यता ही नहीं है तो कोई (धर्म के स्तर पर) अल्प-संख्यक कैसे हो सकता है?

जहां तक भारत के अल्प-संख्यकों का सवाल है; लोगों को लगता है कि हिन्दुस्तान में अल्प संख्यकों स्थिति खराब है; भेदभाव है। भारत के अल्प-संख्यकों की तुलना भारतीय हिन्दुओं से करना भारी मूर्खता है। इनकी तुलना तो पाकिस्तान के हिन्दुओं से करनी चाहिए और यही तर्क-संगत है। हमें थोड़ा अपने दायें-बायें झांक कर देखना चाहिए। तब पता चलेगा कि अल्पसंख्यक होना क्या चीज होती है।

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