वास्तु शास्त्र में दिशाओं का बहुत महत्त्व है, लेकिन और बहुत-सी बातें हैं, जिनका विचार करना आवश्यक होता है।
१. जन्म स्थान से वास्तु स्थान भिन्न होने पर;
“जन्म स्थान से वास्तु स्थान की दिशा”।
२. जन्म स्थान से वास्तु का नगर/उपनगर/ग्राम भिन्न होने पर;
जन्म स्थान से वास्तु स्थान की दिशा व
“आपके पुकार के नाम से वास्तु के नगर/उपनगर/ग्राम का नाम”।
३. “भूमि की सतह”; भूमि कहां-कहां और किस-किस दिशा में ऊँची या नीची है।
४. भूमि का “गुण-धर्म”, रंग, रूप, गठन, गंध, स्वाद; वास्तु स्थान पर उगे हुए पेड़-पौधे।
५. वास्तु स्थान के “आस-पड़ोस का वातावरण”; नजदीक के तालाब, झरने, पहाड़, नदी और सार्वजनिक भवन। पड़ोसी और पड़ोस के मकान।
६. नजदीकी बस स्टॆंड या यातायात की सुविधा का स्थान व दिशा (”घर से निकलने पर आमतौर से किस दिशा में जाएंगे”)।
७. वास्तु का “वेध” करने वाली गली, पेड़, खंभे, अन्य इमारत इत्यादि।
८. वास्तु स्थान का “आकार”। “क्षेत्रफल”।
९. वास्तु स्थान की “दिशाएं व कोण” (ख़ासतौर से फ़्रंट साइड की दिशा)।
अब नम्बर आता है वास्तु के निर्माण का। वास्तु स्थान में भवन का स्थान; “मुख्य द्वार” (भवन का द्वार); भवन के अन्य द्वार; “चारदिवारी का द्वार”। फिर नम्बर आता है वास्तु के अन्दर कहां क्या होना चाहिए।
जब ऊपर लिखी सब बातों का विचार हो जाए तब भूमि खरीदने और भवन बनाने के “मुहुर्त” का विचार करना चाहिये।
यदि प्रयत्न करने पर भी वास्तु के लिए भूमि या मकान न मिल पा रही हो तो “भगवान् वाराह की अराधना-उपासना” करनी चाहिए।
दिशा निर्धारण बहुत सावधानी से करना चाहिए। अंदाजे से काम नहीं करना ठीक नहीं है, एक-एक अंश को महत्त्व देना चाहिए। सदैव दिशा-सूचक (कम्पास) का प्रयोग करना चाहिए। एक कम्पास पर विश्वास नहीं करना चाहिए, कम-से-कम दो कम्पासो से दिशा की परीक्षा करनी चाहिए। आमतौर से, स्थान विशेष पर कम्पास दिशाओं के अंश बताने में गलती करते हैं। यदि हो सके तो गूगल अर्थ से भी दिशाएं परख लनी चाहिएं। क्योंकि गूगल अर्थ मुफ़्त का और सबसे सच्चा दिशा-सूचक है।
इसके अतिरिक्त वास्तु-परीक्षा की अन्य बहुत-सी विधियां हैं, जिन्हें लिखकर बताना-समझाना संभव नहीं। वास्तु स्थान या भवन की कुछ विशेषताएं (वास्तु का भूत-भविष्य, भूमि के अन्दर का हाल, भूमि का जगा या सोया होना) केवल पराविद्या के द्वारा ही जानी जा सकती हैं। लेकिन वास्तु के वो गुण जो पराविद्या द्वारा जाने जाते हैं, कहीं न कहीं संकेत रूप में आम व्यक्ति के लिए भी अंकित होते हैं। इसलिए वास्तु की परीक्षा बहुत ध्यान से करनी चाहिए।
भूमि खरीदने पर और भवन बनाने के बाद शुद्धि आवश्यक है। इसके अतिरिक्त इन दोनो समयों पर अनुष्ठान भी आवश्यक होते हैं। भूमि खरीदने से लेकर गृह-प्रवेश तक कई वैदिक अनुष्ठान अनिवार्य होते हैं। भवन निर्माण निर्विध्न पूरा होना चाहिए, यदि किसी कारण कुछ दिन के लिए निर्माण रुक गया हो तो फिर अनुष्ठान करके आरंभ करना चाहिए। निर्माण बीच में रोकना पड़े तो छत डाल कर ही रोकें, बिना छत की दीवारें खड़ी हों तो निर्माण कार्य नहीं रोकना चाहिए, ये बड़ा अनर्थकारी होता है। बिना छत के मकान का ऐसा फल है कि मैं लिखना से डरता हूँ।
गृह-प्रवेश के बाद भी जब कभी छोटी-बड़ी तोड़-फोड़ या मरम्मत मकान में हो तो वास्तु शान्ति अनिवार्य होती है।
06 May 2009
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