30 May 2009

शाकाहार 6

सारी समस्या की जड़

आखिर ये सारी समस्या क्यों और कैसे उत्पन्न हुई? क्योंकि इन मलेच्छों के धर्म में गाय या सूअर जैसी कोई समस्या तो है नहीं। और दूसरी बात- जैसे ही यह लोग धर्म स्वीकार करते हैं, मसीहा इनके सभी पाप अपने ऊपर ले लेते हैं। बस जो जी में आए करो। इनके बहुत से मिश्रित मसालो में गाय के भेज़े का चूर्ण या अण्डे के छिलके का चूर्ण, सूअर की चर्बी का चूर्ण या किसी अन्य पशु का चूर्ण होता है। ये इस बात की बिलकुल भी परवाह नहीं करते कि कोई हिन्दू या मुसलमान भी इनके उत्पाद को अंजाने में खा सकता है। यदि इनके किसी खाद्य उत्पाद पर आप (ingredients or contains में) सब कुछ साधारण देखे मगर लिखा हो “मसाले” तो सवधान हो जाएँ। क्योंकि हमारे भगवान उनके मसीहा जैसे दयालु नहीं हैं, कि सारे पाप अपने ऊपर ले लें।


पश्चिम के प्रताप से केक का बाजार बढता ही जा रहा है। और केक में जेलेटिन का उपयोग अभी भारत के फ़ैशन में है। हालांकि आमतौर से सभी मीठे ब्रॆड और केक मरगारीन से युक्त होते हैं। लोग आमतौर से समझते हैं कि संस्कार हीन या अधकच्चे मक्खन को मरगारीन कहते हैं। लेकिन सच्चाई कुछ और है, जिस प्रकार भारत में कुछ लोग भैंस और सूअर की चर्बी को दूध में मिलाकर दूध की वसा को बढ़ाते हैं। उसी प्रकार विदेशों में भी होता है लकिन वहां भैंस तो होती नहीं इसलिए गाय और सूअर की चर्बी दूग्ध-उत्पादों में मिलाते हैं, विशेष रूप से मरगारीन में। हमेशा याद रखें कि भारत में बिकने वाला दूध, दही, पनीर और मिठाई ही भारतीय हो सकते हैं। घी, मक्खन, चीज़ और मरगारीन आदि भारत में बिकने वाले ज्यादातर डिब्बाबन्द या फॆक्ट्री दुग्ध उत्पादों के लिए कच्चा माल विदेशों से ही आता है।


इसलिए आप बेशक भारतीय दुग्य उत्पाद खरीद रहे हैं लेकिन वास्तव में डिब्बा मात्र ही भारतीय है। डिब्बे के अन्दर का दुग्ध-उत्पाद भारतीय हो यह बहुत दुर्लभ बात है। मैं यह नहीं कहता कि शुद्ध भारतीय दुग्ध-उत्पाद शुद्ध हैं लेकिन विदेशी उत्पादों में धोखे की अधिक संभावना है।


यदि हम इस सिद्धान्त को मानते हैं कि- गाय के शरीर की ऐसी संरचना है कि उसका खाया हुआ चारा सीधे दूध में बदल जाता है। इसलिए भी हमें विदेशी दुग्ध-उत्पाद का त्याग करना चाहिए क्योंकि विदेशों में गाय को मांसाहारी चारा भी दिया जाता है।

सारी समस्या की जड़ पश्चिमी सभ्यता ही है अतः उनके खाद्य उत्पादों का तुरन्त त्याग करें। विशेष रूप से विदेशी दुग्ध-उत्पादों से दूर रहें।……..इससे आगे यहाँ पढ़ सकते हैं तथा इस लेख के पिछले अंश यहाँ पर पढ़ें जा सकते हैं।

शाकाहार 7

निर्णय

मैने पहले आरम्भ में ही लिखा था कि शाकाहार या मांसाहार असली समस्या नहीं है इसलिए जितनी चाहो कोला पीयो। लेकिन यदि हम हिन्दू धर्म में आस्था रखते हैं तो हमें किसी भी चीज को अपने (हिन्दू, सनातन) धर्म के अनुसार उसकी श्रेणी में रखना चाहिए। क्योंकि शाकाहार हमारा धर्म या साम्प्रदाय नहीं है। हमारा धर्म है सनातन (हिन्दू), साम्प्रदाय हमारा जो भी हो- शैव, शाक्त, वैष्णव या अन्य कोई भी। हमारे धर्म के अनुसार दूध पीने से हमें कोई दोष नहीं लगेगा। लेकिन अण्डा चाहे fertilised (चूजा निकालने योग्य देशी अण्डा) हो या न (चूजा नहीं निकालने वाला फ्रामी अण्डा) हो, हिन्दू धर्म के अनुसार इसे खाने में दोष है।

 

परिहार

यूं तो सप्ताह के 7 में से 5 दिन (रविवार, सोमवार, मंगलवार, गुरुवार, तथा शनिवार) दाढ़ी बनाने से भी दोष लगता है। कृष्ण जन्माष्टमी और शिवरात्री का वर्त न रखने से भी पाप लगता है। लेकिन ये दोष और पाप इतने गम्भीर नहीं हैं जितने कि पीज़ा या जेली केक खाने से लगते हैं। पीजा या जेली केक खाने के बाद तो हम उन सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं जो हिन्दू धर्म हम पर लगाता है। क्योंकि हम अब मलेच्छ जो जाते हैं। अब हम स्वतन्त्र हैं, कुछ भी खा सकते हैं। क्योंकि हमने जेलेटिन खा लिया है। अब समस्या खुद को अशुद्धता से बचाने की नहीं, समस्या यह हो जाती है कि स्वयं को शुद्ध कैसे करें? प्रायश्चित कैसे करें? हिन्दू धर्म के अनुसार, यदि हम प्रायश्चित न करें तो दूसरे जन्म में दूषित योनि प्राप्त होगी या फिर शारीरिक दोषों से युक्त मनुष्य योनि मिलेगी। जिन पापों का यहां हम विचार कर रहें हैं उनके प्रायश्चित के लिए- चान्द्रायण व्रत, महासांतपन व्रत, सांतपन व्रत, गोदान इत्यादि करना चाहिए।……….इस लेख को आरंभ से पढ़ना चाहते हैं तो यहाँ पर पढ़ सकते हैं।

शाकाहार 5

इ-नम्बर (E-Numbers)

ऐसे रसायन जिनकों खाद्य पदार्थों में मिलाया जाता है, इनकी संख्या आज 3000 से ज्यादा है। ऐसे ही बहुत से अनगिनत रसायन, वास्तव में रसायन नही जीवों का अंश है, लेकिन उन्हें वैज्ञानिक नाम या नम्बर दे दिये गए हैं। जैसे कि आजकल बहुत से खाद्य उत्पादों पर जहां उत्पाद में शामिल (ingredients or contains) पदार्थों (घटकों) की सूचि होती है, उन में कुछ रंग या रंगों के नम्बर भी लिखे होते हैं और कहीं-कहीं इ-नंबर (“E” Numbers) जैसे- E509, E542, E630-E635 वगैरह सिर्फ नम्बर भी लिखे होते हैं। ये सभी  No. और ये नाम – calcium stearate, emulsifiers, enzymes, fatty acid, gelatin, glycerol, glycine, glyceryl, glyceral, leucine, magnesium stearate, mono and diglyceri, monostearates, oleic acid, olein, oxystearin, palmitin, palmitic acid, pepsin, polysorbates, rennet, spermaceti, stearin, triacetate, tween, vitamin D3 हमारे धर्म के लिए घातक हो सकते हैं। इन अन्जान नम्बरों और नामों से सदैव सावधान रहें।

कोई भी ई-नंबर शाकाहारी है या मांसाहारी यह तो केवल वह कंपनी ही बता सकती है जिसने उसका उत्पाद या निर्माण किया है। क्योंकि एक ही ई-नंबर को कई तरह से बनाया जाता सकता है। एक ही ई-नंबर कोई कंपनी शाकाहारी फार्मूले से बनाती है और दूसरी कंपनी मांसाहारी फार्मूले से।

एक और बात बड़े दुःख के साथ यहां बतानी पड़ेगी कि मधुमेह का इंसुलीन इंजेक्शन भी गाय-सूअर से ही बनता है।

 

अभक्ष्य या मांसाहारी वनस्पति

आजकल तो वनस्पति भी नॉनवेज है। जब साधारण भारतीय वनस्पति से जुड़े जेनेटिक शब्द को सुनता है तो उसके दिमाग में संकर शब्द आता है। वह सोचता है कि जेनेटिक संकर जैसा ही कोई शब्द है, दो विभिन्न वनस्पितयों के जीन मिलाकार कोई नई नस्ल की वनस्पति तैयार करते होंगे। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। आज विश्व बाजार में सवा सौ से अधिक वनस्पतियां ऐसी हैं जोकि पशुओं से संकरित हैं। यानि मांसाहारी हैं। ख़ास तौर से मांसाहारी टमाटर, आलु, बैंगन, शिमला मिर्च, फूल गोभी, बन्द गोभी आदि अधिक प्रचलन में हैं। सब्जी को अधिक गूदेदार बनाने के उद्देश्य से अधिकतर सब्जियां मांसाहारी बनाई गई हैं अर्थात् उन सब्जियों के बीज में मछली, गाय, सूअर आदि के अंश मिलए जाते है। लेकिन आलु में उस कीड़े के अंश मिलाए जाते हैं जो कीड़ा आलु की फसल को खाता या ख़राब करता है। जिससे की वो कीड़ा उस सजातीय आलु को न खाए।

इन मांसाहारी सब्जियों की एक पहचान यह है कि इनको पकाते समय सुगंध के बजाय दुर्गंध आती है। लेकिन कई बार दुर्गंध साधारण सब्जी से भी आती है, ख़ास तौर से दिल्ली जैसे महानगरों में, क्योंकि कुछ किसान गन्दे (नाले के) पानी से अपने खेत की सिंचाई करते हैं। लोग इन मांसाहारी सब्जियों के लिए जर्मनी को जिम्मेदार मानते हैं, क्योंकि वहीं से सब शुरु हुआ। लेकिन मैं तो इस एक देश नहीं बल्की एक धर्म को इसके लिए दोषी मानता हूँ।

 

फ़ास्ट-फ़ूड

पहली बात यह है कि– फास्ट-फूड केवल पकाले या खाने में ही फास्ट हैं पचनें में “वॆरी स्लो”। हालांकि, फास्ट-फूड पकने से पहले भी बहुत धीमी प्रक्रिया से गुजरते हैं।

विदेशी फ़ास्ट-फ़ूड वालों के यहां मसालेदार खाना भी होता है। आप शाकाहारी हों या नहीं इससे फर्क नहीं पड़ता, यदि आप हिन्दू हैं तो विदेशी मसाले या फारमूले वाला कोई (या कोई भी चीज जिससे आप पूरी तरह परिचित न हों) उत्पाद न खाएँ। चाहे वह विश्व प्रसिद्ध लेबल वाले फिंगर चिप्स हो या लाल लेबल वाला कोला पेय। यदि आप सोंचते हैं कि आप इन दोनो खाद्य पदार्थों से परिचित हैं और खातें हैं तो आप गलती पर हैं। इन दोनों का संयोग दुनिया में प्रसिद्ध है लेकिन यह दोनो ही मांसाहारी है। हालांकि इन दोनो पर शाकाहार का चिह्न भी है और मसालेदार भी नहीं, फिर भी मांसाहारी हैं। मैं जिस चिप्स की बात कर रहा हूँ उसमें गाय के अंश होते हैं इसलिए हम नहीं खा सकते। लेकिन पेय को पीया जा सकता हैं क्योंकि इसकी टक्कर धर्म नहीं शाकाहार से है। इस पेय में एक विशेष कीड़े को मिलाया जाता है जिससे कि लोग फिर लाल-लेबल वाले कोला को ही पीयें। आपने शायद गौर किया हो कि पेप्सी-कैम्पा या दूसरी कोला पीने वाले कट्टर नहीं होते वे अन्य किसी कंपनी की कोला भी पी सकते हैं। मगर लाल-लेबल वाली कोला पीने वाले को दूसरी किसी भी कोला में वो रस (कीड़े का स्वाद) नहीं मिलता इसलिए वे लोग नसेड़ियों की तरह केवल एक ही कंपनी की कोला पीते हैं।

चिप्स के बारे में मैं आपको थोड़ा और बता देता हूँ। पहले यह कंपनी गाय की चर्बी में चिप्स तला करती थी। जैसा की आप जानते हैं कि किसी भी चर्बी में बहुत ज्यादा कैलेस्ट्रॉल होता है। जब लोगों की कॆलट्रॉल के प्रति जागरुकता बढ़ने लगी तो इस कंपनी ने चर्बी में चिप्स तलना छोड़ दिया। लेकिन लोगों को तेल के चिप्स में स्वाद नहीं आ सकता, इसलिए यह कंपनी गाय की चर्बी वाला गन्ध चिप्स में डालने लगी। यह गन्ध इस कंपनी का पूरी तरह से गुप्त अविष्कार है लेकिन प्राकृतिक है अर्थात् गाय की चर्बी से ही बना है।

यहां प्रसंगवश बता दूँ की इनके आलू भी कोई आम नहीं होते। यह फ्रांस की एक ख़ास नस्ल के आलु होते हैं जिन्हे अमेरिका के अयोवा प्रान्त में उगाया जाता है। और खेत से आने के बाद एक बहुत लम्बी प्रक्रिया के बाद ये आलु तलने के लिए तैयार हो पाते हैं। इसी कारण पूरे वर्ष चिप्स का स्वाद एक जैसा रहता है।…………इससे आगे यहाँ पढ़ें और इस लेख के पिछले अंश यहाँ

शाकाहार 4

चीनी

एक बात और बड़े मज़े कि आप से कहता हूँ। क्या आपने बचपन में किसी व्यक्ति से यह सुना था कि “चीनी” गाय की हड्डी से साफ करके बनाई जाती है? आप ने यह सोचा होगा कि वो व्यक्ति मूर्ख है? अगर साफ करने के लिए कोई हड्डी ही चाहिए तो भला गाय की क्यों? सच मानिये, मैंने भी यही सोचा था। लेकिन अफ़सोस, यह सच है। यह हमारे बचपन की बात नहीं है आज भी चीनी सिर्फ “गाय+सूअर” की हड्डी से ही साफ की जाती है। मैं उसी चीनी की बात कर रहा हूँ जो हम प्रति दिन खाते हैं, ख़ास तौर से भारत में, क्योंकि विदेशों में बिना साफ की हुई (भूरी) चीनी बाज़ार में आसानी से मिल जाती है। हम भारतीयों को ही सफेद चीनी खाने की कुछ ज्यादा आदत है। भूरी चीनी में गन्ध भी होती है इसलिए कुछलोग इसे पसंद नहीं करते।
डेढ़ सौ साल पहले तक चीनी शाहाहारी थी लेकिन शायद उस समय भारत में चीनी होती ही नहीं थी। 1822 में एक नये अविष्कार के बाद चीनी मांसाहारी होनी शुरु हो गई। पहले चीनी लकड़ी के कोयले से रगड़ कर चीनी साफ़ करते थे। लेकिन गाय-सूअर की हड्डी-खाल का कोयला चीनी को ज्यादा अच्छी तरह साफ करता है, इसलिए अब केवल गाय-सूअर की हड्डी के कोयले का प्रयोग चीनी साफ करने के लिए होता है।
आपने कभी वोदका की सफाई पर ग़ौर किया? बहुत-सी रूसी वोदका गाय-सूअर की हड्डी से बने जेलेटिन से साफ की जाती है, अर्थात् हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अभक्ष्य है।


वर्क

हम जो अपनी मिठाइयों को सजाने के लिए चाँदी की वर्क का इस्तेमाल करते हैं ये भी गोमांस से युक्त होती है। क्योंकि चाँदी को फैलाकर वर्क बनाने के लिए हथौड़ी से पीटा जाता है। आप अच्छी तरह से जानते हैं कि वर्क बहुत नाजुक होती है। अगर हथौड़ी का सीधा प्रहार करें तो वर्क टूट कर बिखर जाएगी, यदि किसी धातु या किसी और चीज की परत के बीच में रख कर पीटा जाए तो चाँदी धातु से इस प्रकार चिपक जाएगी कि फिर सिर्फ पिघला या खरोच कर ही अलग होगी। इसका अनुभव आप वर्क को छूकर कर सकते हैं। जब हम बर्क को छूते हैं तो हमारी अँगुली से बहुत बुरी (अच्छी) तरह चिपक जाती है। इस समयस्या का एक मात्र उपाय ये है कि चाँदि को गाय की आँतों में लपेट कर हथौड़े से पीटा जाये। इस लिए बर्क बनाने वाले इस एक मात्र उपाय का प्रयोग करते हैं। स्वयं को खुश करने के लिए, आपको ये कल्पना करने की कोई जरूरत नहीं है कि वर्क के तैयार होने पर उसे धोया या साफ किया जाता होगा।…….इससे आगे यहाँ पढ़ें और इस लेख के पिछले अंक यहाँ

शाकाहार 3

पिज़्ज़ा या पीज़ा (हार्ड-चीज़)

पश्चिमी फैशन के मारे हुए हमारे हिन्दू भाई बड़े शौक से वेज़ पीज़ा खाते हैं। क्योंकि पीज़ा पर शाकाहार की हरी मुहर लगी होती है। लेकिन बिचारे मासूम ये नहीं जानते कि “वेज़ पीज़ा” नाम की कोई वस्तु इस संसार में है ही नही। क्योंकि पीजा के ऊपर चिपचिपाहट के लिए जो हार्ड चीज़ बिछाइ जाती है, उस हार्ड चीज़ में गाय की आँतें मिली हुई होती हैं। गाय की आँत डाले बिना हार्ड-चीज़ चिपचिपी नहीं बन सकती। पनीर या छैना को गाय की आँतों में पकाने से ही हार्ड-चीज़ बनती है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। और बिना हार्ड चीज़ के कोई भी पीज़ा नहीं बन सकता अर्थात् सभी पीज़ा नॉन-वॆज़ (गाय के मांस से युक्त) होते हैं।

चिपचिपाहट के आलावा भी और बहुत से कारण है कि हार्ड चीज़ गौमांस युक्त होती है। सबसे पहले तो दूध को अधिक चर्बी-युक्त बनाने के लिए दूध में गाय की चर्बी मिलाते हैं फिर दूध से पनीर बनाने के लिए बछड़े की आँते दूध में डालते हैं; फिर पनीर को चीज़ में बदलने के लिए गाय की आँतें उसमें डालते हैं। फिर वह हार्ड-चीज़ सुगठित दिखे इसके लिए गाय की हड्डी का चूर्ण हार्ड-चीज़ में मिलाते हैं। इसके आलावा और बहुत-सी उत्पादन की बारीकियाँ है जिसके लिए गौमांस हार्ड-चीज़ में मिलाना जरूरी होता है।

यदि पीजा घर में बनाया जाए तो शाकाहारी भी हो सकता है। क्योंकि हम हार्ड-चीज़ की जगह पर कोई/किसी दूसरी चीज़ का प्रयोग कर सकते हैं। लेकिन हार्ड-चीज़ के आलावा अन्य चीज़ भी ज्यादातर गौमांस युक्त है। भारत में शायद अभी संभव नहीं है लेकिन विदेशी बाज़ार में इटली की “मासकरपोने क्रीम-चीज़” मिल जाती है जोकि केवल दुग्ध उत्पाद से बनी है (मासकरपोने आम चीज़ से 4-5 गुना मंहगी होती है)। मैं कई सालों से ऐसी चीज़ की तलाश में हूँ, मुझे इसके आलावा दूसरी कोई चीज़ या चीज नहीं मिली। हर चीज़ में जाने-अंजाने या वज़ह-बेवज़ह गौमांस है। कुछ ऐसी चीज़ कंपनी भी हैं जो गाय की आँतो के साथ-साथ गाय की हड्डी भी चीज़ में डालती हैं। गाय की हड्डी डालने से चीज़ देखने में इकसार लगती है (पीज़े में डलने से पहले)। मूर्खों को पढ़ने में दिक्कत न हो इसलिए पॆकिंग के ऊपर गाय की हड्डी को “कॆलसियम क्लोराईड” या “E 509″ लिखा जाता है।

हार्ड-चीज़ जैसी ही एक चीज़ होती जिसे परमिजान कहते हैं, कुछ लोगों को भ्रम है कि परमिजान शाकाहारी है, लेकिन ऐसा नही है। हाँ, शायद एक-आध कंपनी हैं जो कि गाय की आँतों की बजाए बकरे की आँत परमिजान-चीज़ में डालती हैं। लेकिन इसके आलावा और क्या-क्या है उस चीज़ में, इस बारे में मैं अभी संतुष्ट नहीं हूँ। बी.बी.सी. के रसोई वाले जाल पर परमिज़ान को शाकाहारी भाजन में शामिल किया गया है, लेकिन दूसरी जगह उन्होनें स्पष्ट कर दिया गया है कि परमिजान चीज़ हमेशा शाकाहारी नहीं होता।

 

पनीर

हम जो पनीर बाज़ार से ख़रीद कर खाते हैं वो भी भरोसेमन्द नहीं है। क्योंकि दूध फाड़ कर पनीर बनाने का जो सबसे सफल रसायन है, जिसका इस्तेमाल अधिकांश पेशेवर लोग करते हैं। वो वास्तव में रसायन नहीं बल्कि गाय के नवजात शिशु का पाचन तन्त्र है। अगर हम पनीर बनाने के लिए दूध में नीम्बू का रस, टाटरी या सिट्रिक एसिड डालते हैं तो दूध इतनी आसानी से नहीं फटता जितना कि उस अंजान रसायन से, फिर घरेलू पनीर में खटास भी होती है, बाज़ार के पनीर की तुलना में जल्दी खट्टा या ख़राब हो जाता है। इस रसायन की यही पहचान है कि पनीर जल्दी ख़राब या खट्टा नही होता, और हमारी सबसे बड़ी यह समस्या यह है कि किसी भी लेबोटरी टेस्ट से ये नही जाना जा सकता कि पनीर को बनाने के लिए गाय के शिशु की आँतों का इस्तेमाल किया गया है। क्योंकि गाय के शिशु की आँतें दूध के फटने पर पनीर से अलग हो कर पानी में चली जाती हैं। इसका बहुत कम (नहीं के बराबर) अंश ही पनीर में बचता है। यह पानी जो दूध फटने पर निकलता है इसे विदेशों में मट्ठा या छाज (why) कह कर बेचते हैं। प्रवासी हिन्दु भाई कृपा करके यह विदेशी मट्ठा कभी न ख़रीदें। इसलिए बाज़ारू पनीर (सभी प्रकार के पनीर) से भी सावधान रहें। दूध, क्रीम, मक्खन, दही तथा दही की तरह ही दूध से बने (खट्टे) उत्पादों के अतिरिक्त विदेशों में बिक रहे लगभग सभी अन्य दुग्ध-उत्पाद मांसाहारी हैं। ज्यादातर मरगारीन भी मांसाहारी ही है।…….इससे आगे यहाँ पढ़ें और पिछले लेख यहाँ 

शाकाहार 2

जेलेटिन (सरेस या श्लेश)
हमारे विदेशी मित्रों की बदौलत आजकल हम मूर्खों के बाज़ार में ऐसे बहुत से उत्पाद हैं जोकि गाय और सूअर के मांस से बने हैं। गलती शत-प्रतिशत हमारी है, क्योंकि बाज़ार में ये सब चोरी छुपे नहीं बिक रहा। लेकिन हमने ही अपनी आँखें बन्द कर रखी हैं, हमने कभी जानने की कोशिश ही नही की। मगर अफ़सोस कि बात यह है कि इसका सम्बन्ध हिन्दू और मुसलमान धर्म से है और आम हिन्दू और मुसलमान यह नहीं जानते। इसलिए उत्पादों को प्रयोग करते हैं या खाते हैं। जैसे कि जेलेटिन इसका प्रचल आजकल बहुत बढ़ गया है और बढ़ता ही जा रहा है। लेकिन आम आदमी यह नहीं जानता कि जेलेटिन (gelatin or gelatine) गाय और सूअर की हड्डी-खाल से बनता है।


ग्लिसरीन और पेपसिन भी ज्यादातर जेलेटिन की तरह ही गाय-सूअर से बनते हैं। इसी प्रकार के और बहुत से रसायन जोकि वास्तव में पशु के शरीर से बने हैं; कुछ-एक शुद्ध शाकाहारी आइस-क्रीमों में भी पाये जाते हैं। बहुत-से साबुन भारतीय बाज़ार में पशुओं की चर्बी से युक्त हैं, जिनमें से कुछ अत्यन्त लोकप्रिय हैं। बहुत-से लोकप्रिय टूथ-पेस्ट भी ग्लिसरीन से युक्त हैं और ग्लिसरीन पर आँखें मून्द कर विश्वास नहीं किया जा सकता। क्योंकि ग्लिसरी भी वास्तव में जेलेटिन का ही दूसरा रूप है। गाय और सूअर की हड्डी और खाल को पानी में उबालने पर जो जेल जैसी परत ऊपर तैरती हुई बनती है, उसे जेलेटिन और उससे निचली परत को ग्लिसरीन कहते हैं। हालांकि पॆट्रोलियम से भी ग्लिसरीन बनाई जाती है।


आप भली-भाँती जानते हैं वर्ना थोड़ा याद करके देखिये, हम ऐसी बहुत-सी दवाइयां खा चुके हैं या खाते हैं जोकि जेलेटिन से कोटेड हैं। आयुर्वेदिक औषिधी भी इससे अछूति नहीं है। मेरे व्यक्तिगत पूछने पर एक प्रतिष्ठित कंपनी (भारत की सुप्रसिद्ध या कहें तो अन्तर-राष्ट्रीय स्तर पर भारत की सबसे प्रतिष्ठित आयुर्वेदिक दवा बनाने वाली संस्था) ने उत्तर में लिखित जवाब दिया कि “फिलहाल, स्थानीय (भारतीय) बाज़ार में हम सख़्त जेलेटिन कैप्सूल का प्रयोग करते हैं, उस जेलेटिन कैप्सूल में गोवंश की हड्डीयों से बना औषधीय स्तर का जेलेटिन होता है। लेकिन सबसे प्रतिष्ठित आयुर्वेदिक कंपनी की गौमांस-युक्त (गोवंश जेलेटिन) आयुर्वेदिक दवाएं मैने देखी हैं, उन पर नॉनवेज़ का कोई निशान नही है। लेकिन दवा पर जहां शामिल (ingredients or contains) आयुर्वेदिक औषधियों (घटकों) के नाम व मात्राएं लिखी होती है वहां जेलेटिन लिखा है।

कोई उत्पाद यदि नॉन-वेज़ जेलेटिन से युक्त है तो कम-से-कम उस उत्पाद पर नॉन-वेज़ की मुहर तो हो। मैं समझता हूँ कि सभी उत्पादकों को इसका ध्यान रखना चाहिए। रैनबक्सी की जेलेटिन कैपसूल (जेलेटिन-कोटेड) पर बाक़ायदा नॉन-वेज़ का चिह्न बना हुआ है। क्योंकि उन्होने कैपसूल की कोटिंग के लिए मासाहारी जेलेटिन का इस्तेमाल किया है। धन्यवाद ऐसी कंपनियों का जो कम-से-कम नॉनवेज़ की मुहर तो लगा रही हैं।


हालांकि शाकाहारी जेलेटिन भी होती है, मगर बहुत मंहगी होती है, क्योंकि यह शाकाहारी जेलेटिन किसी ख़ास समुद्री घास से बनती है। शाकाहारी जेलेटिन को “कैराज़ीन या ज़ेलोज़ोन” कहते हैं। जोकि अधिकतर “अगर-अगर” नामक समुद्री वनस्पति से बनती है। जबकि साधारण जेलेटिन बूचड़-खाने की फेंकी हुई बेकार की या बहुत सस्ती, बड़ी-बड़ी हड्डीयों और छोटे-छोटे चमड़े के टुकड़ों वगैरा से बनती है। कुछ लोग हिन्दू और मुसलनों की धर्मिक भावनाओं का ख़्याल रखते हुए मछली से भी जेलेटिन बनाते हैं। लेकिन इसे या शाकाहारी जेलेटिन को ख़रीदने के लिए शायद आपको अमेरिका जाना पड़े। क्योंकि शाकाहारी जेलेटिन बहुत मंहगी होती है इसलिए या तो अमेरिका वोलों के लिए ही बनी है या अमेरिकन ही उसे खरीदने की छमता रखते हैं।………..इससे आगे यहाँ पढ़ें और इस लेख का पिछला भाग यहाँ पढ़ें

श्री राम और सेतु

(Published on September 19, 2007 by Pawan at jaishreeraam.wordpress.com)

ये केवल हिन्दू धर्म की ही समर्थता है कि अपने अन्दर इतने गद्दार, विरोधी और आलोचकों के होते हुए भी कायम है। किसी और धर्म में यदि इतनी संख्या या प्रतिशत में आलोचक (अपने ही धर्म के) हो जाएं तो सोच कर देखिये कितने दिन वो धर्म चल सकता है? हमारा धर्म का सिर्फ नाम ही नहीं वास्तव में सनातन है।

 

एक अमरीकी समाचार संस्था कह रही है कि चार में से सिर्फ एक हिन्दू धर्म-परायण है। ये सुनकर पत्रकरो ने हल्ला काट दिया, चलो मान लिया सच है। लेकिन अमेरिका में चालीस में से एक नहीं मिलेगा जो धर्म-परायण हो। मगर अपने धर्म के अस्तित्व और आस्था पर प्रश्न उठाने वाला चार सौ में से एक नहीं मिलेगा। लेकिन हमारे धर्म में आलोचकों की भरमार है और यह हमारा गुण है (आजकल तो फ़ैशन भी है)।(इन अंग्रेजी भाषियों ने पहले धर्म-परायण ईसाई लोगों को Orthodox Christian कह कर पुकार और आज कहते हैं कि Orthodox का मतलब रूढीवादी या कट्टरवादी होता है। क्योंकि Orthodox लोग ज्यादातर रूस (भूतपूर्व सोविय संघ) और दक्षिणी-पूर्वी यूरोप में रहते हैं। अंग्रेज लोग अपनी जरूरत के अनुसार अंग्रेजी शब्दों के अनुवाद क्षेत्रीय भाषा में करते हैं। आज ये प्रचार कर रहे हैं कि चार में से एक हिन्दू धर्म परायण है, कल या आज ही किसी दूसरी जरूरत पड़ने पर कहेंगे कि चार में से एक हिन्दू कट्टरवादी है।)  

 

हमारा धर्म हमें वास्तव में स्वतंत्रता देता है कि हम जितना चाहें इसका विरोध अपमान या आलोचना करें। लेकिन कोई दूसरे धर्म का व्यक्ति हमारे धर्म पर प्रश्नचिह्न लगाए, आलोचना करे, हमारी आस्था पर चोट करे ये बर्दास्त करने लायक नहीं है। चाहे झगड़ा पुल का ही क्यों न हो। अपना आदमी चाहे कितनी भी आलोचना करे अपना ही है। जो गाय दूध देती है वो अगर लात भी मारे तो बुरा नहीं मानना चाहिए। अपनी औलाद नालायक भी हो जाए, फिर अपनी ही रहेगी।

 

कृष्ण ने भी बहुत आलोचना की मगर क्या हुआ? उन्होने मूर्ति और देवता पूजा का विरोध किया, लोगो ने उन्हीं की मूर्ती बना कर पूजा करनी शुरु कर दी। उन्होने देवताओं के स्थान पर गाय, पेड़ और पर्वत की पूजा करने को कहा तो लोगों ने गाय, पेड़ और पर्वतों को ही देवता घोषित कर दिया परिणाम क्या निकला? हिन्दू धर्म के देवी-देवताओ की संख्या और बढ़ गई। हमारा धर्म आलोचकों से नहीं डरता। आलोचक बुद्ध हुए, महावीर हुए कृष्ण से पहले भी बहुत से अष्टावक्र जैसे ॠषि हुए थे जिन्होने हमारे कर्म-काण्ड और बहुदेवतावाद का बड़ा विरोध किया, आदि गुरु शंकराचार्य जी ने भी अपने आधे जीवन में इन सब बातों का समर्थन और फिर आधे जीवन विरोध किया, क्या इन सबके विरोध या आलोचनाओं सें हमारे धर्म का कुछ घटा? हमारे धर्म पर कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं। हमने उल्टा, इन्हीं सब को देवता कह कर पूजना शुरु कर दिया।

 

बुद्ध जैसा नास्तिक आज ढूंढना मुश्किल है, जो देवी-देवता ही क्या परमपिता परमेश्वर (निराकार) में भी विस्वास नहीं करता था, अपने प्रचारों से हमारा कुछ न बिगाड़ सका। बुद्ध के प्रचार के परिणाम स्वरूप हमरे धर्म में कुछ कट्टरपंथी पैदा हुए, हमारा धर्म और सुरक्षित हुआ और मजबूत हुआ। लेकिन बौद्धो को इससे बड़ा नुक्सान झेलना पड़ा। (लोग उनकी पूजा करते हैं और स्वयं को उनका अनुयायी कहते हैं, है न मज़ाक? जब बुद्ध ने देवता, भगवान् या ईश्वर वाले सिस्टम को माना ही नहीं तो वो स्वयं भगवान् कैसे हो सकते हैं। हिन्दु धर्म के अनुसार तो वो भगवान् हैं, लेकिन उनके बौद्ध अनुयायियों को तो बुद्ध के उपदेशों का अनुसरण करना चाहिए अर्थात् बुद्ध को भगवान् नहीं मानना चाहिए।

 

आप अपने चारों ओर देखिए हिन्दुओं की धार्मिक सक्रियता (पूजा-अनुष्ठान, तीर्थ-मन्दिर यात्रा) बढती ही जा रही है। क्योंकि हमारा धर्म वास्तव में सनातन हैं और सनातन रहेगा।

 

आपने डिस्कवरी या एन॰ जी॰ सी॰ वगैरह टी॰ वी॰ चैनलों पर बाइबॅल (नई/पुरानी) या ईसा मसीह के ऊपर बहुत डॉक्यूमेन्टरी देखी होंगी। क्या कभी आपने ऐसा कुछ देखा है जिससे ईसाई, यहूदी या इस्लाम धर्म की किसी मान्यता या कहानी का खण्डन होता हो? इन तीनों के धर्म-ग्रथों में लिखी कोई बात झूठी सिद्ध होती हो? या कोई प्रश्नचिह्न खड़ा होता हो? हिन्दू धर्म की मान्यताओं और इससे जुड़े लोगों की ये जम कर धज्जियां उड़ाते हैं। इस्लाम धर्म को ये लोग छूने से डरते हैं, इसलिए न अच्छा और न बुरा पक्ष दिखाते है। पिछले साल पॉप की इस्लाम पर की गई एक टिप्पणी से पूरी दुनिया में बवाल हुआ। कुरआन का सबसे पहला अंग्रजी अनुवाद 1648 ई॰ में हुआ। मतलब लगभग एक हजार साल बाद जबकि हिन्दुओं ने इसका अनुवाद हिन्दी में 813 ई॰ में ही कर लिया था। इससे इस्लाम के प्रति ईसाईयों का डर स्पष्ट दिखाई देता है।

 

ये चैनल यहूदी और ईसाई धर्म की मान्यताओं के समर्थन में अनेक वैज्ञानिक सिद्धान्त और कहानियों से महिमा मण्डन और समर्थन में तर्कों के ढेर लगा देते हैं। हालांकि कई बार यहूदी धर्म की कुछ बुराइयों {केवल ईसा मसीह के समकालीन (कारण आप जानते ही हैं)} को भी दिखाते हैं लेकिन उनकी पुरानी मान्यताओं और आस्था को सदैव सत्यापित करते रहते हैं, ऐसा इसलिए कि यहूदी धर्म के अस्तित्व से ही ईसाई धर्म का अस्तित्व है। यहूदियों के धर्म ग्रंथ बाइबॅल में लिखा है कि मसीहा धरती पर आयेगा, इसलिए यहूदियों को मसीहा का बेसब्री से इन्तजार है। लेकिन ईसाई लोग दावा करते हैं कि ईसा मसीह वही मसीहा है जिसका यहूदियों की बाइबॅल में जिक्र है। इस लिए ईसाई लोग यहूदियों के बाइबॅल (पुरानी) की सभी (अन्य) बातों को प्रमाणित करने का प्रयास करते रहते हैं। अपने धर्म ग्रंथ “नया नियम” को भी बाइबॅल कह कर प्रचारित करते हैं।(ईसाई लोग यहूदियों की बाइबॅल को अपनी बाइबॅल यानि नया नियम के साथ एक जिल्द में भी प्रकाशित करते हैं।) 

मूसा ने मिश्र से इजराइल भागते समय, यहोवा के वचनानुसार जब समुद्र के आगे लाठी उठाई तो, तेज और लगातार बहने वाली पवन ने समुद्र के पानी दो तरफ हटा दिया, बीच में रास्त बन गया, पानी रास्ते के दायीं और बायीं ओर दीवार की तरह खड़ा हो गया। फिर पूर्वी पवन ने जमीन सुखा दी। मूसा ने अपने लोगों के साथ समुद्र की सूखी जमीन पर चल कर समुद्र पार किया। उनका पीछा करते हुए जब सैनिक (मिश्र के) समुद्र पार कर रहे थे, उस समय मूसा ने समुद्र के दूसरी ओर जाकर फिर लाठी ऊपर उठाई तो पानी वापस आ गया और सारे सैनिक मर गए। किस तरह से डिस्कवरी वाले इसकी वैज्ञानिक सिद्धान्तों से पुष्टि करते है ये देखने लायक होता है।

 

हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार समुद्र में रास्ता बनाने के लिए भगवान् राम ने भी समुद्र के आगे लाठी तो नहीं लेकिन अपना धनुष जरूर उठाया था। लेकिन समुद्र ने रास्त नहीं दिया, इस कार्य को पर्यावरण के लिए हानिकारक बताया। इस लिए माफी मांग कर पुल बनाने का सुझाव दिया। क्योंकि राम पर मूसा जैसी विपत्ति नहीं थी (क्योंकि मूसा का तो सैनिक पीछा कर रहे थे, लेकिन राम स्वयं हमला करने जा रहे थे)। जिस पवन ने हनुमान जी की सहायता लंका दहन में की थी, वो भी राम की सहायता के लिए नहीं आये (हालांकि बाईबलानुसार पवन ने ही मूसा के लिए लाल सागर में रास्ता बनाया था)। समुद्र ने राम को पुल बनाने के लिए अनुकूल स्थान, मार्ग (क्योंकि समुद्र के अन्दर का हाल उनसे ज्यादा और कौन बता सकता था) तथा योग्य इंजीनियर नल-नील सुझाए। राम ने समुद्र के सुझाव के अनुसार पुल बनाया। यदि मूसा की कहानी सच्ची है, तार्किक है, वैज्ञानिक सिद्धातों से सिद्ध होती है तो राम की कहानी में भला किसी को क्या आपत्ति है। (करुणा जी कह रहे थे कि “क्या राम इंजीनियरिंग पढी थी?”, राम ने तो इंजीनियरिंग पढी थी, लेकिन करुणा जी ने रामायण ही क्या हिन्दुओं का कोई ग्रंथ नहीं पढ़ा और तेरे नाम फिल्म भी नहीं देखी वर्ना ऐसा प्रश्न नहीं करते। तेरे नाम फिल्म में भी गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥” कहा (जपा) गया है। उस युग में गुरुकुल में 64 विद्याए पढाई जाती थी। उसमें स्थापत्य और इंजीनियरिंग वगैरह सब कुछ पढाया जाता था। इसके अलावा समुद्र देव ने पुल बनाने में माहिर नल-नील का पता तो राम को बता ही दिया था और जैसा कि सब जानते हैं कि नल और नील की सहायता से ही पुल बना था। अगर मूसा की तरह राम के लिए भी यदि पवन से रास्ता बना दिया होता तो आज न ये पुल होता और न इसका रगड़ा-झगड़ा) 

 

ये (अन्य धर्म) हम लोगों (करुणा जी) की तरह अपने धर्म या धार्मिक ग्रंथों का विरोध नहीं करते। इनकी सारी फिल्में, डॉक्यूमेंट्री यह सिद्ध करती हैं कि इनके धर्म और मिथक कथाओं में सब कुछ सच है। इन्होनें कभी अपनी इस धार्मिक मान्याता का जिक्र नहीं किया कि हमारी सृष्टि केवल छः हजार साल पुरानी है। क्योंकि इसके पक्ष में तो मुल्ला नसीरुद्दीन भी तर्क नहीं दे सकते। लेकिन ये इन्होंने सिद्ध करके दिखा दिया है कि धर्मिक सेना की छोटी-सी पीपनी बजाने से दुश्मन के किले की दिवार गिर जाया करती थी।

 

आपने शायद सुना हो, पिछली बार जब अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव हुए थे, उस चुनाव प्रचार की बहस में एक बात खबरों में आई थी कि बुश और उसका निकटतम प्रतिद्वंद्वी जॉन केरी, दोनो अपने विद्यार्थी जीवन में किसी एक ही प्रतिबन्धित संस्था (मासोन) के सदस्य थे। दोनों ने कैमरे के आगे स्वीकार किया। लेकिन इसका कोई ज़िक्र नहीं हुआ कि कोन-सी संस्था? बाद में इनसे अकेले में विशेष पत्रकार ने पूछा (कैमरे के आगे, और कैमरा कभी अकेला नहीं होता), कोई जवाब नहीं दिया केवल मुस्करा दिये। क्योंकि उस संस्था का नाम उजागर होने से ईसा मसीह पर मंडित, तथाकथित छवि पर खतरा है। हालांकि मासोन भी ईसाई ही हैं (डेन ब्राउन की “द विंची कोड” के “ओपुस देइ” की तरह)। किसी जमाने में इसी संस्था (हमेशा से प्रतिबंधित) में आस्था रखने वालों के द्वारा संस्था के आदर्शों को ध्यान में रखते हुए अमेरिकन डॉलर (एक का नोट) डिजायन किया गया था (एक का डॉलर जो आम चलता है)।

 

कहने मतलब ये है कि अपने-अपने धर्म की कमजोरी (असंगत या विवादास्पद बात) सब जानते हैं लेकिन वो हिन्दुओं की तरह उसका प्रचार नहीं करते। बल्कि अपनी कमजोरी को छुपा कर रखते हैं और खुल जाने पर अपनी विशेषता बताते हैं। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि ये (धर्म का) ज्ञान उसी को दें जो पहले से ही अमुक देवता या ग्रंथ विशेष प्रति आस्थावान हो, नास्तिक को ज्ञान न दें (गीता)। परधर्मी तो बहुत दूर की बात है, परशिष्य को भी धर्म का ज्ञान देना मना है। हमारी परम्परा धर्म प्रचार की नहीं है।

 

प्राचीन काल में हिन्दू धर्म कई दूर देशों में गया लेकिन हम इसे लेकर नहीं गए थे। दूर देशों के लोग ही यहां आकर हमारे धर्म से प्रभावित हुए और इसका प्रचार अपने देश में किया। मुहम्मद साहब और ईसा मसीह भी भारत की यात्रा के बाद ही सफल हुए। लेकिन इन दोनों कि भारत यात्रा को ये लोग प्रचारित नहीं करते। वे अपने जन्म-जात धर्म से प्रताड़ित थे और नये धर्म की स्थापना करना चाहते थे। उनकी भारत यात्रा पूरी तरह से सुनियोजित थी। ये यात्रा उन्होने अपने उद्देश्य के लिए ही की थी। इसलिए उन्होनें हिन्दू धर्म या भारत यात्रा का प्रचार अपने देशों में नहीं किया। (बाइबॅल यहूदी भाषा हिब्रू में लिखी गई, भारत को होदू लिखा गया है। इजरायल प्रवास में मुझे पता चला कि आज भी ये लोग हमें होदी और हमारे देश को होदू कहते हैं। मान्यता है कि नया नियम सबसे पहली बार ग्रीक भाषा में लिखा गया। लेकिन ये ग्रीक वाली बाइबॅल तीसरी शताब्दी में रोम के राजा कोंस्तानतीन की प्रेरणा से विशेष रूप से संकलित और सम्पादित की गई थी जिसका उद्देश्य रोम के गृहयुद्ध को शान्त करना था, इसलिए ग्रीक  (यूनानी भाषा) का ठप्पा जरूरी था। वर्ना ईसा मसीह के हिब्रूHebrew-Aramic भाषी अनुयायी भला ग्रीक में नया नियम क्यों लिखते या लिखवाते? इजराइल के लोग तो पाँच हजार साल से आज तकएक ही भाषा और लिपि का प्रयोग करते आ रहे हैं।)

 

जिन दिनों मैं आस्ट्रिया में रह रहा था, एक दिन मैं एक पुराने कथोलिक Catholic चर्च में गया, वहाँ प्राचीन चित्रों द्वारा समझाया गया था कि किस तरह इन्होंने दूसरे देशों में चुपके से बीमारियां फैलाईं और फिर देव दूत के रूप में नाव से उन देशों में गये और बीमार लोगों का इलाज किया। उन्हें ईसाई बनाया। आज यही काम भारत और भारत जैसे देशों में हो रहा है लेकिन नाव की जगह हवाई जहाज ने ले ली हैं। 

 

ऐसे समय में हमारे धर्मनिर्पेक्ष नेता लोग राम जैसे लोकप्रिय भगवान् के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं। भगवान् राम सिर्फ भारत नहीं बल्कि विश्व में लोकप्रिय हैं, जाने-अंजाने विश्व के सभी धर्मों में राम का स्थान है। दिल्ली के पाँच “रामनगर” को मैं जानता हूँ, दुनिया भर में राम के नाम पर शहर हैं। लोग कहते हैं “राम कसम”, “राम दुहाई”, “राम राम”, “राम राज्य”, “राम का नाम लो”, “राम के नाम पर दे दो”, “राम जाने”, “राम भरोसे”, “राम का नाम सत्य है”, “राम करे अइसा हुइ जाए मेरी निन्दिया॰॰॰”, “राम नाम जपना पराया माल अपना” “राम तेरी गंगा मैली हो गई”, “राम लड्डू”, और न जाने क्या-क्या। क्या हिन्दुओं का एक राम ही भगवान् है? विष्णु कसम, कृष्ण का नाम लो या शंकर तेरी गंगा मैली हो गई क्यो प्रसिद्ध नहीं? जब अपने आस-पास देखो तो हर तरफ राम का नाम है। आम बोल-चाल में राम शब्द ईश्वर का प्रयाय है। इतना लोकप्रिय होते हुए भी राम के भक्तों की कमी है।

 

ध्यान से देखें- कृष्ण भक्त, शिव भक्त, हनुमान भक्त, किसी देवी के भक्त, गणेश भक्त, खांटू बाबा, सांई बाबा और न जाने कौन-कौन से बाबा के भक्त आपने देखे होंगे, लेकिन आज तक आपने कितने राम भक्त देखे हैं? आपने जान-पहचान के लोगों को- वैष्णो देवी, हरिद्वार, केदार, बद्री, अमर नाथ, मथुरा, वृन्दावन, खांटू और न जाने कौन-कौन-से तीर्थ जाते सुना होगा। आप कितने लोगों से मिले हैं जो तीर्थ करने अयोध्या जाते हैं? तो फिर अयोध्या में जनता कैसे इक्कठी हो गई थी? मैं नहीं समझता कि अयोध्या कांड मथुरा और बनारस से ज्यादा जरूरी था। लेकिन नेता लोग जानते थे कि केवल राम के नाम पर ही जनता भड़क सकती है, इक्कठी हो सकती है। अयोध्या कांड पूरी तरह से राजनैतिक था, नेताओं ने लोगो की भावनाओं को कैश किया। नेताओं ने राम नाम जप कर खुद को लोकप्रिय किया और आज भी कर रहे हैं। राम के बाद लोकप्रियता में भगवान् शंकर का नम्बर आता हैं, फिर देवी, तब कृष्ण और हनुमान जी का।

 

लेकिन कुछ लोग जो राम के अस्तित्व के तर्क में उनका समय ६ हजार वर्ष पुराना बताते हैं, यह गलत है। जहां तक मैंने पढ़ा है, राम शायद लाखों वर्ष पूर्व हुए थे। लेकिन क्या जरूरी है कि उनका अस्तित्व सिद्ध किया जाए? मैं समझता हूँ कि उनका नाम ही प्रयाप्त है, उनके नाम का अस्तित्व ही काफ़ी है।

 

यह सिद्ध करना कोई जरूरी नहीं है कि सेतु राम का बनाया हुआ है या नहीं। क्योंकि हो सकता है कि राम के बनाये गए सेतु का कोई सबूत न बचा हो, नष्ट हो गया हो। और जो सेतु वहां है वो पहले भी था (प्राकृतिक), इसीलिए समुद्र ने राम को वहां सेतु बनाने के लिए कहा था।

 

जहां तक सेतु तोड़ने का सवाल है; इटली और दुनिया के कई देशों नें प्रयावरण की सुरक्षा के लिए मूँगे की खुदाई (खुरचाई) रोक दी है। मूँगे के लिए समुद्र की तह को थोड़ा-सा खुरचना पड़ता है, लेकिन सेतु हटाने के लिए समुद्र में क़यामत लानी होगी। यहां राम का तो कोई सवाल ही नहीं है, चलो अगर यह भी मान लें कि बना हुआ सेतु प्राकृतिक है। इस स्थिति में, प्रयावरण की सुरक्षा को देखते हुए, सेतु तोड़ने का विचार छोड़ देना चाहिए।

ज्योतिष में पाया विचार

ज्योतिष विद्या में पाया (जन्म के पैर) का विचार दो प्रकार से होता है। नक्षत्र एवं चन्द्र से, चन्द्र से पाया विचार स्थूल माना जाता है लेकिन यह अधिक प्रचलित और व्यवहार में है।

१. नक्षत्र से पाया विचार

सोने का पाया- २७. रेवती, १. अश्विनी, २. भरणी, ३. कृत्तिका, ४. रोहणी या ५. मृगशिरा नक्षत्र में जन्म होने पर सोने के पैर होते हैं।

चाँदी का पाया- ६. आद्रा, ७. पुनर्वसु, ८. पुष्य, ९. आश्लेषा, १०. मघा, ११. पूर्वा फाल्गुनी, १२. उत्तरा फाल्गुनी, १३. हस्त, १४. चित्रा या १५. स्वाती नक्षत्र में जन्म होने पर चाँदी के पैर होते हैं।

ताम्बे का पाया- १६. विशाखा, १७. अनुराधा, १८. ज्येष्ठा, १९. मूल, २०. पूर्वा षाढा, २१. उत्तरा षाढा, २२. श्रवण २३. धनिष्ठा या २४. शतभिषा नक्षत्र में जन्म होने पर ताम्बे के पैर होते हैं।

लोहे का पाया- २५. पूर्वा भाद्रपद या २६. उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में जन्म होने पर लोहे के पैर होते हैं।

 

२. चन्द्र से पाया विचार

सोने का पाया- चन्द्र यदि लग्न, षष्ठ या एकादश भाव हो तो सोने के पैर होते हैं। (अत्यंत शुभ)

चाँदी का पाया- चन्द्र यदि द्वितीय, पंचम या नवम भाव हो तो चाँदी के पैर होते हैं। (शुभ)

ताम्बे का पाया- चन्द्र यदि तृतीय, सप्तम या दशम भाव हो तो ताम्बे के पैर होते हैं। (साधारण)

लोहे का पाया- चन्द्र यदि चतुर्थ, अष्टम या द्वादश भाव हो तो लोहे के पैर होते हैं। (अशुभ)

06 May 2009

ज्यतिष विषय प्रवेश

कुछ बाते जो ज्योतिष (Jyotish) के परिचय में लिखनी चाहिए थीं वो मैं यहां लिख रहा हूँ। क्योंकि ये उन्हीं के लिए है जो वास्तव में इस विद्या में रुचि रखते हैं।

. ज्योतिष विद्या सीखने के लिए बहुत धैर्य से लम्बे समय तक अध्ययन करने की आवश्यकता होती है। अध्ययन के बाद अनुभव भी प्राप्त करना होता है।

. अध्ययन और अनुभव के बाद कोई ज्योतिष की फलित विद्या तो सीख सकता है, लेकिन फलादेश करना एक कला है। जिस व्यक्ति के भीतर कलाकार पहले से हो वही साधक कोई कला सीख सकता है।

. विद्या तो स्वयं पुस्तक पढ़कर सीखी जा सकती है, लेकिन कला के लिए गुरु के दिशा निर्दश, उपदेश, संरक्षण, आशीर्वाद और फलित करने की अनुमति जरूरी है।

. ज्योतिष विज्ञान है, विज्ञान के क्षेत्र में अभ्यास जरूरी नहीं। फलित-ज्योतिष विज्ञान पर आधारित कला है, कला सीखने के लिए अभ्यास जरूरी है। जो व्यक्ति एक कला का स्वामी हो वह दूसरी कला बहुत आसानी से सीख सकता है।

. फलादेश की सफलता के बाद भी कुछ ज्योतिषियों को यश नहीं मिलता। यश प्राप्ति के लिए ज्योतिषी की कुण्डली में यश प्राप्ति के योग होना चाहिए। शुक्र की स्थिति अच्छी होनी चाहिए।

. गुरुदेव या इष्टदेव का आशीर्वाद प्राप्त हो तो कला का यश बहुत सरलता से प्राप्त हो जाता है।  

आपने कुछ ऐसे ज्योतिषी भी देखे होंगे जो बिना ज्योतिष-विद्या बिना गुरु कृपा के यश पा रहे हैं। वास्तव में वो यश नहीं अपनी चतुराई से प्रसिद्धि पा रहे हैं। ऐसी प्रसिद्धि अपनी सीमा (मूर्ख यजमान/जातक) में रहती है और समय सीमा भी होती है। कुछ ज्योतिषी ऐसे भी हैं जिनके गुरु तो हैं लेकिन अपने अहंकार का पोषण करने के लिए वे स्वीकार नहीं करते।

आमतौर से दो प्रकार के ज्योतिषी आजकल के बाज़ार में हैं-

पहली श्रेणी में वो पुराने (निडर) ज्योतिषी आते हैं जो जातक को ग्रहों का भय दिखा कर डराते और भावुक करते हैं फिर उनसे जीवन भर पैसे ऐंठते हैं। इसके लिए जातक को दूसरे ज्योतिषियों से भी डरा कर रखते हैं, जिससे कि यजमान कहीं भाग न जाए।

दूसरी श्रेणी उन (डरपोक) ज्योतिषियों की है जो भविष्य के सुन्दर-सुनहरे सपने दिखा कर जातक खुश करते हैं, क्योंकि ये ज्योतिषी तुरन्त दान महा कल्याण में विश्वास रखते हैं। क्योंकि जातक यदि खुश हो जाएगा दो फलित की दक्षिणा ठीक-ठाक दे देगा। इन नये ज्योतिषियों को ये अनुभव नहीं होता कि अगर जातक डर कर भड़क गया को मुट्ठी में कैसे आएगा? आगे चलकर जब दूसरी श्रेणी के नए ज्योतिषियों को किसी भी तरह जातक को फसाने का अनुभव हो जाता है तो वे प्रथम श्रेणी के निडर ज्योतिषी हो जाते है।

जैसे आमतौर पर दो प्रकार के ज्योतिषी है, ज्यादातर जातक भी दो ही प्रकार के हैं, इसीलिए ऐसे ज्योतिषियों से जाकर फंसते हैं। पहली किस्म के जातकों को डरने में मजा आता, क्योंकि वे सहानुभूति चाहते हैं। वो सहानुभूति चाहे स्वयं से ही प्राप्त क्यों न हो। दूसरी किस्म के जाकत प्रशंसा चाहते हैं, चाहे वो आत्म प्रशंसा ही क्यों न हो। अपनी कुण्डली के महा-योग सुनना चाहते हैं, इसीलिए ज्योतिषी के पास जाते हैं।

आप ये न साचें कि अधिकतर जातक इन दो किस्मों के ही हैं तो समझदार जातक कहां से मिलेंगे? ज्योतिषियों को तो यमराज ही बदलेगा लेकिन ये जातक हर समय बदलने के लिए तैयार हैं। इसको बस अच्छे ज्योतिषी का इंतज़ार है। क्योंकि खुले तौर पर न तो कोई सहानुभूति चाहता है और न ही झूठी प्रशंसा।

स्वयं को साधक मानकर ज्योतिष की साधना करें, मन में धैर्य रखें, पूरी महनत करें। लाल किताब बहुत अच्छी पुस्तक है लेकिन जब तक आप फलित की विद्या और कला दोनो न सीख लें लाल किताब को हाथ न लगाएं। फलित ज्योतिष के केवल प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करें। सबसे पहले बृहद् पाराशर होरा शास्त्र का अध्ययन करें फिर अन्य प्रमाणिक (मानसागरी प्रमाणिक ग्रंथ नहीं है।) ग्रंथों को पढ़ें। जब मूल ज्ञान प्राप्त हो जाए तब नए लेखकों की पुस्तकें भी पढ़ सकते हैं। मेरे हिसाब से तो पिछली शताब्दी के प्रसिद्ध लेखको में केवल भसीन जी ने ही अपनी पुस्तकों में प्रमाणिकता का ध्यान रखा गया है। बाकि आप अपने अनुभवों से पुस्तकों का चयन करें, मगर (मैं बार-बार दोहरा रहा हूँ) ग्रंथो के अध्ययन के बाद ही ज्योतिष की पुस्तके पढ़ें। मुझे आशा है कि प्रज्ञा-पथ के ज्योतिष अध्याय ग्रंथो को समझने में सहायक होंगे।

शुभकामनाएं

ज्योतिष परिचय

ज्योतिष विद्या – ज्यौतिष्, भारतीय ज्योतिष, हिन्दू ज्योतिष, वैदिक ज्योतिष, वेदांग ज्योतिष, नश्रत्र ज्योतिष (Jyotish) आदि नामों से विश्व में प्रसिद्ध है। सृष्टि के आदि काल में ही ऋषियों ने अपने लम्बे जीवन के लौकिक एवं अलौकिक अनुभवों से यह दिव्य विज्ञान प्राप्त किया। ऋषि-मुनियों ने ये ज्ञान गुरु परम्परा के अन्तर्गत अपने शिष्यों को दिया। उन्हीं ऋषियों के अनथक तपों का फल आज हमारे सामने है।

 

इसके तीन खण्ड हैं – सिद्धान्त, संहिता एवं होरा।

भगवन् परमं पुण्यं गुह्यं वेदाङ्गमुत्तमम्।

त्रिस्कन्धं ज्यौतिषं होरा गणितं संहितेति च

(1) सिद्धान्त ज्योतिष का गणितीय भाग है। ग्रह-पिण्डों की स्थिति का अध्ययन, इनके अध्ययन संबंधी उपकरण, पञ्चाङ्ग निर्माण आदि का विचार ज्योतिष के सिद्धान्त खण्ड में है।

 

(2) संहिता के अन्तरगत ज्योतिष के उन प्रभावों का विचार करते हैं जो न केवल व्यक्ति-विशेष अपितु जन समुह हो प्रभावित करे। जैसे आँधी-तूफान, बाढ़-अकाल, उल्का-बिजली, महामारी, बाज़ार-भाव इत्यादि।

 

(3) होरा ज्योतिष का सबसे व्यवहारिक अंग है। महर्षियों ने अपने-अपने समय में ज्योतिष-शास्त्र के तीनों स्कन्धों पर अपना-अपना विचार व्यक्त किया है, वे ऋषि ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक कहलाते हैं। लेकिन व्यक्ति विशेष के दैनिक जीवन में उपयोगी होने के कारण जातक स्कन्ध का अधिक विकास हुआ है। हालांकि सिद्धान्त और संहिता ही होरा का आधार हैं। इस स्कन्ध के अन्तरगत व्यक्ति विशेष के जीवन के सभी पहलुओं पर विचार किया जाता है। होरा स्कन्ध के पाँच अंग हैं – (क) जन्मकाल शोधन, (ख) फलादेश, (ग) मेलापक, (घ) मुहुर्त एवं (ङ) परिहार।

 

(क) फलादेश की प्रमाणिकता के लिए जन्म कुण्डली भी प्रमाणिक होनी चाहिए, जन्मकुण्डली बनाने के लिए बहुत सारे सोफ्टवेयर बाज़ार में, इनमें से ज्यादतर ठीक हैं। लाहड़ी आधारित कोई भी सोफ्टवेयर प्रयोग कर सकते हैं।

मगर असली बात है जन्म कालिक विवरण की। सही जन्म कुण्डली बनाने के लिए तीन बातें जरूरी हैं- 1. जन्म का दिनांक, 2. शुद्ध जन्मसमय व 3. जन्म का स्थान।

 

(1). जन्म की तारीख तो आमतौर से सही-सही मिल ही जाती है, यदि न मिले तो वार के आधार पर खोजबीन-पूछताछ करके ढूँढ लेनी चाहिए। क्योंकि जन्म का वार ज्यातर सही ही होता है, आमतौर से लोग जन्म के वर्ष में गलती करते हैं। इसलिए यदि जातक का बताया हुआ वार और तारीख मेल नहीं खा रहें हों तो वार को सही मानना चाहिए। जातक जब जन्म की तारीख बताए तो उससे जन्म का वार भी पूछ लेना चाहिए और कुण्डली बना कर एक बार कुण्डली में लिखे वार से जातक के बताए हुए वार को मिला लेना चाहिए।

 

(2). जन्म समय बताने में अकसर सभी जातक गलती करते हैं। क्योंकि अस्पताल में दो-चार मिनट की कोई परवाह नहीं करता और दो-चार मिनट घड़ी गलत होती है। जब जन्म लग्न की संधि में हुआ हो तो दो-चार सेकण्ड का भी बहुत महत्त्व होता है। इसलिए जन्म यदि दो लग्नों की संधि में हुआ हो तो जीवन की घटनाओं का मिलान गोचर और दशाओं (अन्तरदशा, प्रत्यन्तरदशा, शुक्ष्मान्तरदशा) से करके जन्म समय शोधन कर लेना चाहिए।

(3). जन्म स्थान में आमतौर से गलती नहीं होती। लेकिन जन्म यदि संधि लग्न हुआ हो तो स्थान का अक्षांश और देशान्तर विकला तक शुद्ध कर लेना चाहिए। इस काम के लिए गूगल अर्थ बहुत अच्छा और मुफ़्त का सोफ़्टवेयर प्रयोग कर सकते हें।

 

(ख). फलादेश होरा का बहुत व्यापक अंग है। आमतौर से फलादेश जन्म कुण्डली के आधार पर होता है। जन्म के समय आकाश में ग्रहों-पिण्डों की जो स्थिति होती है, जन्म कुण्डली में उन्हीं ग्रहों-पिण्डों की स्थिति को बारह भाव, बारह राशि और नौ ग्रहों की सहायता से दर्शाया जाता है। जन्म कुण्डली में जन्म से मृत्यु पर्यन्त के संकेत होते हैं। हालांकि पूर्व-जन्म और भावी जन्म के फलादेश का विचार भी जन्म कुण्डली से किया जाता है, लेकिन कुछ ऋषियों ने अन्य जन्मों के फलादेश को उचित नहीं माना है। जन्म कुण्डली की सहायता से जातक के जीवन के संभावित अशुभ समय में सावधानी, सुरक्षा व धैर्य से ग्रहों के कुप्रभाव को कम करने का विचार किया जाता है और संभावित शुभ समय का सुनियोजित ढंग से सदुपयोग करने की सलाह दी जाती है। शिशु की रुचि व प्रवृत्ति जान कर उसे जीवन-यापन आदि की अनुकूल दिशा का ज्ञान बचपन में ही कराया जा सकता है।

 

(ग). मेलापक द्वारा दो या दो से अधिक लोगों के आपसी तालमेल पर विचार किया जाता है। इसका विचार जन्म कुण्डली और विशेष रूप से चन्द्र और लग्न से किया जाता है।

 

(घ). अंग्रेजी कहावत है – शुभ आरंभ ही आधा सम्पन्न। किसी भी कार्य की शुरुआत अगर अनुकूल समय में हो तो आधे परिश्रम से ही कार्य सफल हो जाता है। कुछ लोग होरा के मुहुर्त अंग को केवल संहिता का हिस्सा मानते हैं, जोकि सही नहीं है। क्योंकि भी मुहुर्त सभी के लिए नहीं होता, मुहुर्त सदैव व्यक्ति विषेश के लिए ही होता है। जैस- आज अगर शादी के लिए मुहुर्त, तो इसका अर्थ ये नहीं कि सबके लिए ताराबल (गोचर में सूर्य, चन्द्र, गुरु अनुकूल) है। ताराबल के अतिरिक्त और बहुत-सी बातें हैं जिसके कारण कोई भी मुहुर्त सबके लिए अनुकूल नहीं हो सकता। इसलिए मुहुर्त का स्थान होरा के अन्तरगत है। 

 

(ङ) परिहार (उपाय Remedies) ज्योतिष का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। क्योंकि बिना ज्योतिष के उपाय हो सकते हैं लेकिन बिना उपाय के ज्योतिष अधूरा है। ज्योतिष की सार्थकता इसके उपायों से ही है। इसलिए ज्योतिषी के पास उसी जातक को आना चाहिए जो ये मानता है कि भविष्य बदला जा सकता है, क्योंकि ये विद्या उन्हीं पुरुषार्थियों के लिए है जो भाग्य से टक्कर लेना चाहते हैं। ज्योतिष हमें सिखाता है कि भाग्य से टक्कर कब और कैसे लेनी चाहिए।

 

यह दिव्य विज्ञान हमें बताता है कि किस तरह ग्रह-नक्षत्र किसी मानव, समुदाय, राष्ट्र या विश्व को प्रभावित करते हैं। ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष शास्त्र है क्योंकि सूर्य-चन्द्र इसके साक्षी हैं प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्रार्कौ यत्रसाक्षिणौ, इस शास्त्र के लिए किसी अन्य प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है।

इसे वेदांग ज्योतिष भी कहते हैं, वेदांग छः हैं – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। इन अंगों में ज्योतिष को वेदों पुरुष का नेत्र माना गया है। ज्योतिष हमारे शरीर में नेत्रों के समान महत्त्वपूर्ण है। बिना ज्योतिष-प्रकाश के जीवन अंधकारमय रहता है, व्यक्ति हर काम अंधेरे-जीवन में टटोल-टटोल कर करता है।

 

कुछ लोगों की धारणा है कि ज्योतिष व्यक्ति को निष्क्रिय या भाग्यवादी बना देता है, ये बिलकुल ग़लत है। जीवन से थके, हारे व निराश व्यक्ति को जीने की नई आशा और ऊर्जा ज्योतिष देता है। जब डॉक्टर किसी मरीज़ को लाइलाज़ कह कर घर बैठने को कहता है तो ज्योतिषी उस मरीज़ को उठाकर मार्ग दिखाता है। क्योंकि यदि डॉक्टर तो कल का मरता उसे आज ही मार देगा। जीवन के किसी भी क्षेत्र से हार व्यक्ति के लिए ज्योतिषी के पास इलाज है। यदि वास्तव में कोई रास्ता नहीं तो ज्योतिषी जातक को कम से कम शुभ दशा तक सहन करने के लिए तो कहता ही है। अशुभ दशा (समय अवधि) के लिए परिहार बता कर जातक को क्रियाशील बनाता है।

 

मैं यहाँ भाषा और शैली सरल रखने का प्रयास करुंगा। क्योंकि आमतौर से पुस्तक तो जानकार व्यक्ति सोच-समझकर ख़रीदता है, लेकिन जाल पर तो कोई भी और कहीं भी बस यूं ही पहुच जाता है। इसलिए मैं यह चाहता हूँ कि कोई भी मेरे लिखे को समझ सके। हालांकि ज्योतिष बहुत गूढ़ विषय है और हर विषय की अपनी एक परिभाषिक शब्दावली या टर्मिनोलोजी भी होती है। इसलिए किसी भी विषय को बोलचाल की सरल भाषा में लिखना कठिन होता है, लेकिन ज्योतिष जैसे गूढ़ विषय को साधारण भाषा और शैली में लिखना मुश्किल नहीं असंभव जैसा काम है। और जब कोई विषय सरल भाषा और शैली में उपलब्ध हो तो वहां प्रमाणिकता नहीं मिलती। इस बात का ध्यान रखते हुए प्रमाणिकता को मैंने कायम रखा है। इसलिए शब्दावली और शब्दार्थ के लिए पेज़ अलग से बनाया है।

 

मैं पिछले बीस वर्षों से ज्योतिष फलादेश और पढ़ाने का काम कर रहा हूँ। लगभग बीस देशों में रह कर फलादेश और अध्यापन का काम किया और कर रहा हूँ। और मैंने ये जाना कि दुनिया में भारत का नाम आइ. टी., मित्तल और अम्बानी नहीं हमारे प्राचीन ज्ञान से रौशन है। हजारो वर्ष पूर्व भी भारत विश्व का गुरु था। भारत में अध्ययन के बाद ही ईसा को लोगो ने मसीहा” कहा और मोहम्मदपैगम्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम” के रुप में स्थापित हुए। इसलिए हमें अपनी धरोहर मिटने नहीं देना चाहिए। हमें अपने ऋषि-मुनियों की विरासत को कायम रखना है। किसी विद्या के प्रचार-प्रसार और लोक-सुलभ होने से उसमें अशुद्धि और विकृति तो आती है लेकिन विद्या के लुप्त होने का खतरा कम हो जाता है। जिस प्रकार पहले समय-समय पर ऋषियों नें विद्याओं को शुद्ध किया उसी प्रकार भविष्य में भी होगा। हमारा काम यह है कि जहां तक हो सके केवल प्रमाणिक विद्या का प्रचार-प्रसार करें। अपने व्यक्तिगत अनुभवों को अलग से बताना चाहिए अन्यथा विद्या की प्रमाणिकता नष्ट हो जाती है।

हालांकि बृहद् पाराशर होरा शास्त्र में लिखा है- न देयं परशिष्याय नास्तिकाय शठाय वा अब जाल पर ये ज्ञान चढ़ा ही दिया तो ज्यादातर इन तीनों में से ही कोई आएगा। मैंने तो यह सज्जन-साधु व्यक्ति के लिए लिखा है, अन्यों से प्रार्थना है कि अपना बहुमुल्य समय यहां खर्च न करें।

वास्तु विषय प्रवेश

वास्तु शास्त्र में दिशाओं का बहुत महत्त्व है, लेकिन और बहुत-सी बातें हैं, जिनका विचार करना आवश्यक होता है।

१. जन्म स्थान से वास्तु स्थान भिन्न होने पर;
“जन्म स्थान से वास्तु स्थान की दिशा”।

२. जन्म स्थान से वास्तु का नगर/उपनगर/ग्राम भिन्न होने पर;
जन्म स्थान से वास्तु स्थान की दिशा व
“आपके पुकार के नाम से वास्तु के नगर/उपनगर/ग्राम का नाम”।

३. “भूमि की सतह”; भूमि कहां-कहां और किस-किस दिशा में ऊँची या नीची है।

४. भूमि का “गुण-धर्म”, रंग, रूप, गठन, गंध, स्वाद; वास्तु स्थान पर उगे हुए पेड़-पौधे।

५. वास्तु स्थान के “आस-पड़ोस का वातावरण”; नजदीक के तालाब, झरने, पहाड़, नदी और सार्वजनिक भवन। पड़ोसी और पड़ोस के मकान।

६. नजदीकी बस स्टॆंड या यातायात की सुविधा का स्थान व दिशा (”घर से निकलने पर आमतौर से किस दिशा में जाएंगे”)।

७. वास्तु का “वेध” करने वाली गली, पेड़, खंभे, अन्य इमारत इत्यादि।

८. वास्तु स्थान का “आकार”। “क्षेत्रफल”।

९. वास्तु स्थान की “दिशाएं व कोण” (ख़ासतौर से फ़्रंट साइड की दिशा)।

अब नम्बर आता है वास्तु के निर्माण का। वास्तु स्थान में भवन का स्थान; “मुख्य द्वार” (भवन का द्वार); भवन के अन्य द्वार; “चारदिवारी का द्वार”। फिर नम्बर आता है वास्तु के अन्दर कहां क्या होना चाहिए।

जब ऊपर लिखी सब बातों का विचार हो जाए तब भूमि खरीदने और भवन बनाने के “मुहुर्त” का विचार करना चाहिये।

यदि प्रयत्न करने पर भी वास्तु के लिए भूमि या मकान न मिल पा रही हो तो “भगवान् वाराह की अराधना-उपासना” करनी चाहिए।

दिशा निर्धारण बहुत सावधानी से करना चाहिए। अंदाजे से काम नहीं करना ठीक नहीं है, एक-एक अंश को महत्त्व देना चाहिए। सदैव दिशा-सूचक (कम्पास) का प्रयोग करना चाहिए। एक कम्पास पर विश्वास नहीं करना चाहिए, कम-से-कम दो कम्पासो से दिशा की परीक्षा करनी चाहिए। आमतौर से, स्थान विशेष पर कम्पास दिशाओं के अंश बताने में गलती करते हैं। यदि हो सके तो गूगल अर्थ से भी दिशाएं परख लनी चाहिएं। क्योंकि गूगल अर्थ मुफ़्त का और सबसे सच्चा दिशा-सूचक है।

इसके अतिरिक्त वास्तु-परीक्षा की अन्य बहुत-सी विधियां हैं, जिन्हें लिखकर बताना-समझाना संभव नहीं। वास्तु स्थान या भवन की कुछ विशेषताएं (वास्तु का भूत-भविष्य, भूमि के अन्दर का हाल, भूमि का जगा या सोया होना) केवल पराविद्या के द्वारा ही जानी जा सकती हैं। लेकिन वास्तु के वो गुण जो पराविद्या द्वारा जाने जाते हैं, कहीं न कहीं संकेत रूप में आम व्यक्ति के लिए भी अंकित होते हैं। इसलिए वास्तु की परीक्षा बहुत ध्यान से करनी चाहिए।

भूमि खरीदने पर और भवन बनाने के बाद शुद्धि आवश्यक है। इसके अतिरिक्त इन दोनो समयों पर अनुष्ठान भी आवश्यक होते हैं। भूमि खरीदने से लेकर गृह-प्रवेश तक कई वैदिक अनुष्ठान अनिवार्य होते हैं। भवन निर्माण निर्विध्न पूरा होना चाहिए, यदि किसी कारण कुछ दिन के लिए निर्माण रुक गया हो तो फिर अनुष्ठान करके आरंभ करना चाहिए। निर्माण बीच में रोकना पड़े तो छत डाल कर ही रोकें, बिना छत की दीवारें खड़ी हों तो निर्माण कार्य नहीं रोकना चाहिए, ये बड़ा अनर्थकारी होता है। बिना छत के मकान का ऐसा फल है कि मैं लिखना से डरता हूँ।

गृह-प्रवेश के बाद भी जब कभी छोटी-बड़ी तोड़-फोड़ या मरम्मत मकान में हो तो वास्तु शान्ति अनिवार्य होती है।

वास्तु परिचय

निवास करने का स्थान जो हवा, वर्षा, सर्दी, गर्मी और हिंसक पशु आदि अन्य चीजो से रक्षा कर सकता हो वह “वास्तु१” कहलाता है। निवास का वह स्थान या भवन जो हवा और बारिश से रक्षा न कर सके, वास्तु के नियम उस पर लागू नहीं होते।

खिड़की, दीवार, खंभे, छत और दरवाजे ही वास्तु नहीं। पूरा घर, घर के लोग और इन दोनो का एक-दूसरे से तालमेल ही अनुकूल वास्तु बना सकता है। इससे घर को ऊर्जा मिलती है और फिर घर हमें ऊर्जा देता है।

अकसर, वास्तुविद् अपने क्षेत्र की पुस्तक और धर्म-ग्रंथों के उदाहरणों को आधार मान कर हर किसी को वास्तु सलाह दे देते हैं। फिर चाहे वो यजमान/जातक/सवाली हिन्दुस्तान या दुनिया के किसी भी कोने या धर्म का क्यों न हो। थोड़ा सोचिए, आधी दुनिया में सूर्य हर दिन दक्षिण और आधी दुनिया में उत्तर से होकर गुजरता है। जो दक्षिणी गोलार्ध (आस्ट्रेलिया, न्यू-जीलॆण्ड, ब्राज़ील ) में रहते हैं क्या उनके लिए भी कर्म, यश, पद आदि का स्थान कुण्डली में 10वाँ ही रहेगा? क्या उनका भवन भी नैर्ऋत्य कोण में ऊँचा होना चाहिए? हमारे साहित्य में छांव को अच्छा मगर पश्चिमी देशों के साहित्य में बुरा माना जाता है।

ज्योतिष में देश-काल-पात्र के विचार को हमेशा बहुत महत्व दिया जाता है। हालांकि इसका विचार हर क्षेत्र में होना चाहिए। लेकिन वास्तु-शास्त्र का बड़े-से-बड़ा विद्वान भी वास्तु-विचार में देश, काल और पात्र के विचार या तो नहीं करता या न के बराबर महत्त्व देता है।

इसके आलावा, जो नियम गृह-वास्तु का है उसे हम नगर-वास्तु या देश के वास्तु पर लागू नहीं कर सकते। चलिये अपने देश को ही देखिये- उत्तर-ईशान में ऊँचा और दक्षिण-नैर्ऋत्य में नीचा। जोकि वास्तु-नियम के विपरीत है, लेकिन वास्तव में ये हमारे लिए अनुकूल है। मैं अनेक वर्षों से यूरोप के विभिन्न देशो में ज्योतिष, समुद्र और वास्तु विद्या पर काम कर रहा हूँ। मैंने इसमें पाया कि भारतीय वास्तु-शास्त्री इन यूरोपीय लोगो को भारतीय मौसम के अनुकूल भवन बनाने की सलाह देते हैं। उत्तर-ईशान-पूर्व में खुला और दक्षिण-नैर्ऋत्य-पश्चिम में बंद वगैरह वगैरह।

एक बात मैंने और देखी अपने विद्वानों की कि फैंग-शूई का वास्तु में धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। दो विद्याओं की आपस में खिचड़ी नहीं पकानी चाहिए। हालांकि फैंग-शूई के शार (वेध) वाले नियम मैं भी अपनाता हूँ, क्योकि भारतीय वास्तु शास्त्र में भी वेध का विचार बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। लेकिन ग्रंथो में शार के बारे में इतना विस्तार से नहीं बताया गया है।
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१भगवान् शंकर जब एक राक्षस का वध कर रहे थे, उस समय शंकरजी के पसीने की बून्द से एक प्राणी का जन्म हुआ। इस कारण वह प्राणी बहुत उग्र और विकराल था। एक बार जब वह पृथ्वी पर अधोमुख होकर गिरा, उसी समय देवता उसके ऊपर जा बैठे और उसे स्तंभित कर दिया। जो देवता उस प्राणी के जिस अंग पर बैठा वहीं निवास करने लगा। देवताओं के निवास के कारण उस प्राणी को “वास्तु” या “वास्तु-पुरुष” कहा गया।

श्री राम और सेतु

(Publish on September 19, 2007 by Pawan at wordpress.com)
ये केवल हिन्दू धर्म की ही समर्थता है कि अपने अन्दर इतने गद्दार, विरोधी और आलोचकों के होते हुए भी कायम है। किसी और धर्म में यदि इतनी संख्या या प्रतिशत में आलोचक (अपने ही धर्म के) हो जाएं तो सोच कर देखिये कितने दिन वो धर्म चल सकता है? हमारा धर्म का सिर्फ नाम ही नहीं वास्तव में सनातन है।

एक अमरीकी समाचार संस्था कह रही है कि चार में से सिर्फ एक हिन्दू धर्म-परायण है। ये सुनकर पत्रकरो ने हल्ला काट दिया, चलो मान लिया सच है। लेकिन अमेरिका में चालीस में से एक नहीं मिलेगा जो धर्म-परायण हो। मगर अपने धर्म के अस्तित्व और आस्था पर प्रश्न उठाने वाला चार सौ में से एक नहीं मिलेगा। लेकिन हमारे धर्म में आलोचकों की भरमार है और यह हमारा गुण है (आजकल तो फ़ैशन भी है)।(इन अंग्रेजी भाषियों ने पहले धर्म-परायण ईसाई लोगों को Orthodox Christian कह कर पुकार और आज कहते हैं कि Orthodox का मतलब रूढीवादी या कट्टरवादी होता है। क्योंकि Orthodox लोग ज्यादातर रूस (भूतपूर्व सोविय संघ) और दक्षिणी-पूर्वी यूरोप में रहते हैं। अंग्रेज लोग अपनी जरूरत के अनुसार अंग्रेजी शब्दों के अनुवाद क्षेत्रीय भाषा में करते हैं। आज ये प्रचार कर रहे हैं कि चार में से एक हिन्दू धर्म परायण है, कल या आज ही किसी दूसरी जरूरत पड़ने पर कहेंगे कि चार में से एक हिन्दू कट्टरवादी है।)

हमारा धर्म हमें वास्तव में स्वतंत्रता देता है कि हम जितना चाहें इसका विरोध अपमान या आलोचना करें। लेकिन कोई दूसरे धर्म का व्यक्ति हमारे धर्म पर प्रश्नचिह्न लगाए, आलोचना करे, हमारी आस्था पर चोट करे ये बर्दास्त करने लायक नहीं है। चाहे झगड़ा पुल का ही क्यों न हो। अपना आदमी चाहे कितनी भी आलोचना करे अपना ही है। जो गाय दूध देती है वो अगर लात भी मारे तो बुरा नहीं मानना चाहिए। अपनी औलाद नालायक भी हो जाए, फिर अपनी ही रहेगी।

कृष्ण ने भी बहुत आलोचना की मगर क्या हुआ? उन्होने मूर्ति और देवता पूजा का विरोध किया, लोगो ने उन्हीं की मूर्ती बना कर पूजा करनी शुरु कर दी। उन्होने देवताओं के स्थान पर गाय, पेड़ और पर्वत की पूजा करने को कहा तो लोगों ने गाय, पेड़ और पर्वतों को ही देवता घोषित कर दिया परिणाम क्या निकला? हिन्दू धर्म के देवी-देवताओ की संख्या और बढ़ गई। हमारा धर्म आलोचकों से नहीं डरता। आलोचक बुद्ध हुए, महावीर हुए कृष्ण से पहले भी बहुत से अष्टावक्र जैसे ॠषि हुए थे जिन्होने हमारे कर्म-काण्ड और बहुदेवतावाद का बड़ा विरोध किया, आदि गुरु शंकराचार्य जी ने भी अपने आधे जीवन में इन सब बातों का समर्थन और फिर आधे जीवन विरोध किया, क्या इन सबके विरोध या आलोचनाओं सें हमारे धर्म का कुछ घटा? हमारे धर्म पर कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं। हमने उल्टा, इन्हीं सब को देवता कह कर पूजना शुरु कर दिया।

बुद्ध जैसा नास्तिक आज ढूंढना मुश्किल है, जो देवी-देवता ही क्या परमपिता परमेश्वर (निराकार) में भी विस्वास नहीं करता था, अपने प्रचारों से हमारा कुछ न बिगाड़ सका। बुद्ध के प्रचार के परिणाम स्वरूप हमरे धर्म में कुछ कट्टरपंथी पैदा हुए, हमारा धर्म और सुरक्षित हुआ और मजबूत हुआ। लेकिन बौद्धो को इससे बड़ा नुक्सान झेलना पड़ा। (लोग उनकी पूजा करते हैं और स्वयं को उनका अनुयायी कहते हैं, है न मज़ाक? जब बुद्ध ने देवता, भगवान् या ईश्वर वाले सिस्टम को माना ही नहीं तो वो स्वयं भगवान् कैसे हो सकते हैं। हिन्दु धर्म के अनुसार तो वो भगवान् हैं, लेकिन उनके बौद्ध अनुयायियों को तो बुद्ध के उपदेशों का अनुसरण करना चाहिए अर्थात् बुद्ध को भगवान् नहीं मानना चाहिए।

आप अपने चारों ओर देखिए हिन्दुओं की धार्मिक सक्रियता (पूजा-अनुष्ठान, तीर्थ-मन्दिर यात्रा) बढती ही जा रही है। क्योंकि हमारा धर्म वास्तव में सनातन हैं और सनातन रहेगा।

आपने डिस्कवरी या एन॰ जी॰ सी॰ वगैरह टी॰ वी॰ चैनलों पर बाइबॅल (नई/पुरानी) या ईसा मसीह के ऊपर बहुत डॉक्यूमेन्टरी देखी होंगी। क्या कभी आपने ऐसा कुछ देखा है जिससे ईसाई, यहूदी या इस्लाम धर्म की किसी मान्यता या कहानी का खण्डन होता हो? इन तीनों के धर्म-ग्रथों में लिखी कोई बात झूठी सिद्ध होती हो? या कोई प्रश्नचिह्न खड़ा होता हो? हिन्दू धर्म की मान्यताओं और इससे जुड़े लोगों की ये जम कर धज्जियां उड़ाते हैं। इस्लाम धर्म को ये लोग छूने से डरते हैं, इसलिए न अच्छा और न बुरा पक्ष दिखाते है। पिछले साल पॉप की इस्लाम पर की गई एक टिप्पणी से पूरी दुनिया में बवाल हुआ। कुरआन का सबसे पहला अंग्रजी अनुवाद 1648 ई॰ में हुआ। मतलब लगभग एक हजार साल बाद जबकि हिन्दुओं ने इसका अनुवाद हिन्दी में 813 ई॰ में ही कर लिया था। इससे इस्लाम के प्रति ईसाईयों का डर स्पष्ट दिखाई देता है।

ये चैनल यहूदी और ईसाई धर्म की मान्यताओं के समर्थन में अनेक वैज्ञानिक सिद्धान्त और कहानियों से महिमा मण्डन और समर्थन में तर्कों के ढेर लगा देते हैं। हालांकि कई बार यहूदी धर्म की कुछ बुराइयों {केवल ईसा मसीह के समकालीन (कारण आप जानते ही हैं)} को भी दिखाते हैं लेकिन उनकी पुरानी मान्यताओं और आस्था को सदैव सत्यापित करते रहते हैं, ऐसा इसलिए कि यहूदी धर्म के अस्तित्व से ही ईसाई धर्म का अस्तित्व है। यहूदियों के धर्म ग्रंथ बाइबॅल में लिखा है कि मसीहा धरती पर आयेगा, इसलिए यहूदियों को मसीहा का बेसब्री से इन्तजार है। लेकिन ईसाई लोग दावा करते हैं कि ईसा मसीह वही मसीहा है जिसका यहूदियों की बाइबॅल में जिक्र है। इस लिए ईसाई लोग यहूदियों के बाइबॅल (पुरानी) की सभी (अन्य) बातों को प्रमाणित करने का प्रयास करते रहते हैं। अपने धर्म ग्रंथ “नया नियम” को भी बाइबॅल कह कर प्रचारित करते हैं। (ईसाई लोग यहूदियों की बाइबॅल को अपनी बाइबॅल यानि नया नियम के साथ एक जिल्द में भी प्रकाशित करते हैं।)
मूसा ने मिश्र से इजराइल भागते समय, यहोवा के वचनानुसार जब समुद्र के आगे लाठी उठाई तो, तेज और लगातार बहने वाली पवन ने समुद्र के पानी दो तरफ हटा दिया, बीच में रास्त बन गया, पानी रास्ते के दायीं और बायीं ओर दीवार की तरह खड़ा हो गया। फिर पूर्वी पवन ने जमीन सुखा दी। मूसा ने अपने लोगों के साथ समुद्र की सूखी जमीन पर चल कर समुद्र पार किया। उनका पीछा करते हुए जब सैनिक (मिश्र के) समुद्र पार कर रहे थे, उस समय मूसा ने समुद्र के दूसरी ओर जाकर फिर लाठी ऊपर उठाई तो पानी वापस आ गया और सारे सैनिक मर गए। किस तरह से डिस्कवरी वाले इसकी वैज्ञानिक सिद्धान्तों से पुष्टि करते है ये देखने लायक होता है।

हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार समुद्र में रास्ता बनाने के लिए भगवान् राम ने भी समुद्र के आगे लाठी तो नहीं लेकिन अपना धनुष जरूर उठाया था। लेकिन समुद्र ने रास्त नहीं दिया, इस कार्य को पर्यावरण के लिए हानिकारक बताया। इस लिए माफी मांग कर पुल बनाने का सुझाव दिया। क्योंकि राम पर मूसा जैसी विपत्ति नहीं थी (क्योंकि मूसा का तो सैनिक पीछा कर रहे थे, लेकिन राम स्वयं हमला करने जा रहे थे)। जिस पवन ने हनुमान जी की सहायता लंका दहन में की थी, वो भी राम की सहायता के लिए नहीं आये (हालांकि बाईबलानुसार पवन ने ही मूसा के लिए लाल सागर में रास्ता बनाया था)। समुद्र ने राम को पुल बनाने के लिए अनुकूल स्थान, मार्ग (क्योंकि समुद्र के अन्दर का हाल उनसे ज्यादा और कौन बता सकता था) तथा योग्य इंजीनियर नल-नील सुझाए। राम ने समुद्र के सुझाव के अनुसार पुल बनाया। यदि मूसा की कहानी सच्ची है, तार्किक है, वैज्ञानिक सिद्धातों से सिद्ध होती है तो राम की कहानी में भला किसी को क्या आपत्ति है। (करुणा जी कह रहे थे कि “क्या राम इंजीनियरिंग पढी थी?”, राम ने तो इंजीनियरिंग पढी थी, लेकिन करुणा जी ने रामायण ही क्या हिन्दुओं का कोई ग्रंथ नहीं पढ़ा और तेरे नाम फिल्म भी नहीं देखी वर्ना ऐसा प्रश्न नहीं करते। तेरे नाम फिल्म में भी “गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥” कहा (जपा) गया है। उस युग में गुरुकुल में 64 विद्याए पढाई जाती थी। उसमें स्थापत्य और इंजीनियरिंग वगैरह सब कुछ पढाया जाता था। इसके अलावा समुद्र देव ने पुल बनाने में माहिर नल-नील का पता तो राम को बता ही दिया था और जैसा कि सब जानते हैं कि नल और नील की सहायता से ही पुल बना था। अगर मूसा की तरह राम के लिए भी यदि पवन से रास्ता बना दिया होता तो आज न ये पुल होता और न इसका रगड़ा-झगड़ा)

ये (अन्य धर्म) हम लोगों (करुणा जी) की तरह अपने धर्म या धार्मिक ग्रंथों का विरोध नहीं करते। इनकी सारी फिल्में, डॉक्यूमेंट्री यह सिद्ध करती हैं कि इनके धर्म और मिथक कथाओं में सब कुछ सच है। इन्होनें कभी अपनी इस धार्मिक मान्याता का जिक्र नहीं किया कि हमारी सृष्टि केवल छः हजार साल पुरानी है। क्योंकि इसके पक्ष में तो मुल्ला नसीरुद्दीन भी तर्क नहीं दे सकते। लेकिन ये इन्होंने सिद्ध करके दिखा दिया है कि धर्मिक सेना की छोटी-सी पीपनी बजाने से दुश्मन के किले की दिवार गिर जाया करती थी।

आपने शायद सुना हो, पिछली बार जब अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव हुए थे, उस चुनाव प्रचार की बहस में एक बात खबरों में आई थी कि बुश और उसका निकटतम प्रतिद्वंद्वी जॉन केरी, दोनो अपने विद्यार्थी जीवन में किसी एक ही प्रतिबन्धित संस्था (मासोन) के सदस्य थे। दोनों ने कैमरे के आगे स्वीकार किया। लेकिन इसका कोई ज़िक्र नहीं हुआ कि कोन-सी संस्था? बाद में इनसे अकेले में विशेष पत्रकार ने पूछा (कैमरे के आगे, और कैमरा कभी अकेला नहीं होता), कोई जवाब नहीं दिया केवल मुस्करा दिये। क्योंकि उस संस्था का नाम उजागर होने से ईसा मसीह पर मंडित, तथाकथित छवि पर खतरा है। हालांकि मासोन भी ईसाई ही हैं (डेन ब्राउन की “द विंची कोड” के “ओपुस देइ” की तरह)। किसी जमाने में इसी संस्था (हमेशा से प्रतिबंधित) में आस्था रखने वालों के द्वारा संस्था के आदर्शों को ध्यान में रखते हुए अमेरिकन डॉलर (एक का नोट) डिजायन किया गया था (एक का डॉलर जो आम चलता है)।

कहने मतलब ये है कि अपने-अपने धर्म की कमजोरी (असंगत या विवादास्पद बात) सब जानते हैं लेकिन वो हिन्दुओं की तरह उसका प्रचार नहीं करते। बल्कि अपनी कमजोरी को छुपा कर रखते हैं और खुल जाने पर अपनी विशेषता बताते हैं। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि ये (धर्म का) ज्ञान उसी को दें जो पहले से ही अमुक देवता या ग्रंथ विशेष प्रति आस्थावान हो, नास्तिक को ज्ञान न दें (गीता)। परधर्मी तो बहुत दूर की बात है, परशिष्य को भी धर्म का ज्ञान देना मना है। हमारी परम्परा धर्म प्रचार की नहीं है।

प्राचीन काल में हिन्दू धर्म कई दूर देशों में गया लेकिन हम इसे लेकर नहीं गए थे। दूर देशों के लोग ही यहां आकर हमारे धर्म से प्रभावित हुए और इसका प्रचार अपने देश में किया। मुहम्मद साहब और ईसा मसीह भी भारत की यात्रा के बाद ही सफल हुए। लेकिन इन दोनों कि भारत यात्रा को ये लोग प्रचारित नहीं करते। वे अपने जन्म-जात धर्म से प्रताड़ित थे और नये धर्म की स्थापना करना चाहते थे। उनकी भारत यात्रा पूरी तरह से सुनियोजित थी। ये यात्रा उन्होने अपने उद्देश्य के लिए ही की थी। इसलिए उन्होनें हिन्दू धर्म या भारत यात्रा का प्रचार अपने देशों में नहीं किया। (बाइबॅल यहूदी भाषा हिब्रू में लिखी गई, भारत को होदू लिखा गया है। इजरायल प्रवास में मुझे पता चला कि आज भी ये लोग हमें होदी और हमारे देश को होदू कहते हैं। मान्यता है कि नया नियम सबसे पहली बार ग्रीक भाषा में लिखा गया। लेकिन ये ग्रीक वाली बाइबॅल तीसरी शताब्दी में रोम के राजा कोंस्तानतीन की प्रेरणा से विशेष रूप से संकलित और सम्पादित की गई थी जिसका उद्देश्य रोम के गृहयुद्ध को शान्त करना था, इसलिए ग्रीक (यूनानी भाषा) का ठप्पा जरूरी था। वर्ना ईसा मसीह के हिब्रू Hebrew-Aramic भाषी अनुयायी भला ग्रीक में नया नियम क्यों लिखते या लिखवाते? इजराइल के लोग तो पाँच हजार साल से आज तक, एक ही भाषा और लिपि का प्रयोग करते आ रहे हैं।)

जिन दिनों मैं आस्ट्रिया में रह रहा था, एक दिन मैं एक पुराने कथोलिक Catholic चर्च में गया, वहाँ प्राचीन चित्रों द्वारा समझाया गया था कि किस तरह इन्होंने दूसरे देशों में चुपके से बीमारियां फैलाईं और फिर देव दूत के रूप में नाव से उन देशों में गये और बीमार लोगों का इलाज किया। उन्हें ईसाई बनाया। आज यही काम भारत और भारत जैसे देशों में हो रहा है लेकिन नाव की जगह हवाई जहाज ने ले ली हैं।

ऐसे समय में हमारे धर्मनिर्पेक्ष नेता लोग राम जैसे लोकप्रिय भगवान् के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं। भगवान् राम सिर्फ भारत नहीं बल्कि विश्व में लोकप्रिय हैं, जाने-अंजाने विश्व के सभी धर्मों में राम का स्थान है। दिल्ली के पाँच “रामनगर” को मैं जानता हूँ, दुनिया भर में राम के नाम पर शहर हैं। लोग कहते हैं “राम कसम”, “राम दुहाई”, “राम राम”, “राम राज्य”, “राम का नाम लो”, “राम के नाम पर दे दो”, “राम जाने”, “राम भरोसे”, “राम का नाम सत्य है”, “राम करे अइसा हुइ जाए मेरी निन्दिया॰॰॰”, “राम नाम जपना पराया माल अपना” “राम तेरी गंगा मैली हो गई”, “राम लड्डू”, और न जाने क्या-क्या। क्या हिन्दुओं का एक राम ही भगवान् है? विष्णु कसम, कृष्ण का नाम लो या शंकर तेरी गंगा मैली हो गई क्यो प्रसिद्ध नहीं? जब अपने आस-पास देखो तो हर तरफ राम का नाम है। आम बोल-चाल में राम शब्द ईश्वर का प्रयाय है। इतना लोकप्रिय होते हुए भी राम के भक्तों की कमी है।

ध्यान से देखें- कृष्ण भक्त, शिव भक्त, हनुमान भक्त, किसी देवी के भक्त, गणेश भक्त, खांटू बाबा, सांई बाबा और न जाने कौन-कौन से बाबा के भक्त आपने देखे होंगे, लेकिन आज तक आपने कितने राम भक्त देखे हैं? आपने जान-पहचान के लोगों को- वैष्णो देवी, हरिद्वार, केदार, बद्री, अमर नाथ, मथुरा, वृन्दावन, खांटू और न जाने कौन-कौन-से तीर्थ जाते सुना होगा। आप कितने लोगों से मिले हैं जो तीर्थ करने अयोध्या जाते हैं? तो फिर अयोध्या में जनता कैसे इक्कठी हो गई थी? मैं नहीं समझता कि अयोध्या कांड मथुरा और बनारस से ज्यादा जरूरी था। लेकिन नेता लोग जानते थे कि केवल राम के नाम पर ही जनता भड़क सकती है, इक्कठी हो सकती है। अयोध्या कांड पूरी तरह से राजनैतिक था, नेताओं ने लोगो की भावनाओं को कैश किया। नेताओं ने राम नाम जप कर खुद को लोकप्रिय किया और आज भी कर रहे हैं। राम के बाद लोकप्रियता में भगवान् शंकर का नम्बर आता हैं, फिर देवी, तब कृष्ण और हनुमान जी का।

लेकिन कुछ लोग जो राम के अस्तित्व के तर्क में उनका समय ६ हजार वर्ष पुराना बताते हैं, यह गलत है। जहां तक मैंने पढ़ा है, राम शायद लाखों वर्ष पूर्व हुए थे। लेकिन क्या जरूरी है कि उनका अस्तित्व सिद्ध किया जाए? मैं समझता हूँ कि उनका नाम ही प्रयाप्त है, उनके नाम का अस्तित्व ही काफ़ी है।

यह सिद्ध करना कोई जरूरी नहीं है कि सेतु राम का बनाया हुआ है या नहीं। क्योंकि हो सकता है कि राम के बनाये गए सेतु का कोई सबूत न बचा हो, नष्ट हो गया हो। और जो सेतु वहां है वो पहले भी था (प्राकृतिक), इसीलिए समुद्र ने राम को वहां सेतु बनाने के लिए कहा था।

जहां तक सेतु तोड़ने का सवाल है; इटली और दुनिया के कई देशों नें प्रयावरण की सुरक्षा के लिए मूँगे की खुदाई (खुरचाई) रोक दी है। मूँगे के लिए समुद्र की तह को थोड़ा-सा खुरचना पड़ता है, लेकिन सेतु हटाने के लिए समुद्र में क़यामत लानी होगी। यहां राम का तो कोई सवाल ही नहीं है, चलो अगर यह भी मान लें कि बना हुआ सेतु प्राकृतिक है। इस स्थिति में, प्रयावरण की सुरक्षा को देखते हुए, सेतु तोड़ने का विचार छोड़ देना चाहिए।